Sunday, 6 August 2017

04-07-2016
19:16

जाने की घड़ी आ गई।
सोचा नहीं था कि 
यहाँ से जाऊँगी भी कभी।
पर जाने की घड़ी आ गई।

बिताए यहाँ मैंने अपने चालिस के दशक
अब जब पचासवें दशक में आई
तो इसके उत्तरार्ध में
जाने की घड़ी आ गई।

बिताए इन तेरह सालों में
सबके लिए तो जीया ही
खुद से खुद का जब हुआ राबता 
तो जाने की घड़ी आ गई।

कुछ गम के कुछ तम के पल बीते
यहाँ सबके साथ कभी रो के कभी हँस के
जब ठहराव का होने लगा इतमीनान
तो जाने की घड़ी आ गई।

पहले जो जाती तो रहती थी आने की बाट
अबके जो जाऊँगी तो जाने कब आ पाउँगी
इसी ऊहापोह में उलझ सुलझ
अन्तत: जाने की घड़ी आ गई।

किया कई बार जी को कड़ा 
जब भी मन उदास कमजोर पड़ा
आज विदा के इस बेला में मन है नम
कि अब तो बिछड़ने की घड़ी आ गई।

वहाँ जब खोलूंगी लँच का डब्बा तो 
कैसे गले तले उतरेगा निवाला
डबडबाई आँखें के आगे तिर जाएंगे
यहाँ का मिल बाँट साझा खाना।
शायद होगा वहाँ चम चम सा शिक्षक कक्ष
पर आँखें ढूंढेगी तुम्हें
कान तरसेगें तुम्हारे बोल।
न रहेगी वो कुरसी की खींच तान
न साझे का खानपान।
न समवेत स्वर में होगी
अधिकारियों की शिकायतें
न एक साथ किसी शरारती बच्चे पर
मिल कर डाँट फटकार लगाना
कभी कड़वी मीठी नोंकझोंक
कभी चुगली कभी gossiping
याद आ आ मन हो जाएगा उदास
चेहरा घुमा डबडबाई आँखें लुंगी पोंछ
व्याकुल हो तब करूँगी WhatsApp
और facebook तथा फोन पर तुमसे बातें।
यह जानते हुए भी कि शनैः शनै 
स्मृतियाँ होती जाती धूमिल
कुछ नई स्मृति के तले दबती जाती 
फिर जाने की घड़ी है आ जाती।

सो अब जाने की घड़ी आ गई।
सोचा भी न था कि 
यहाँ से जा सकूंगी कभी
पर आज मोह माया से बंधी
यहाँ के मोह माया को छोड़ने की घड़ी है आ चली
सो लेती हूँ अब आप तुम सबों से विदा
कि अब जाने की घड़ी है आ गई।

No comments:

Post a Comment