Sunday, 6 August 2017


गोलकुंडा 

31-05-2017
18:09

"खंडहर को देख कर कहा जा सकता है कि इमारत कभी बुलंद थी", इस चिरपरिचित कथन की प्रासंगिकता गोलकुंडा किले के सन्दर्भ में शत प्रतिशत लागू होती है। किले की चट्टानी चौड़ी दीवारें अभी भी अन्दर की खंडहरों में तब्दील होती इमारतों की ढाल बन सुरक्षित रखे हुए हैं। जहाँ ऊँची इमारतें की खंडहर हमारे दम्भ, दर्प, अहंकार के खोखलेपन को उजागर करती हैं वहीं बाहरी दीवार जो कि ऊँची हो कर भी जमीं के पास है और सदियों बाद भी सही सलामत हैं, हमें जीवन फलसफा से रूबरू कराती हैं। जो भी हो, किले का हर एक पत्थर एक अनबूझ पहेली है।
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पत्थरों की ऊँची दीवारों से निर्मित
किले की अनगिनत बुर्जों के पीछे
जाने कितने ही किवदंतियाँ, रहस्य है छिपे?

खंडहरों में तब्दील सोये इतिहास का,
बिखरा इक इक पत्थर है गवाह कि
तारीखों के साथ कैसे बदलें तख्त औ'ताज।

एक चरवाहे की पहाड़ी चरागाह को
फौलादी किले से घेर उसकी सुकुनियत पर
हुकूमत का ऐलान करता का ये अवशेष।

दीर्घ चट्टान पर अर्द्धध्वस्त सा वह गुम्बज
राजाओं, शाहों के सर्वोच्च, सर्वोपरि होने के
मान को झुठलाता अब भी है विहँस रहा।

कीलें ठुकी लौह दरवाजे से आबाद,
पर जाने इन बुर्जों से कितनी तोपों ने
अरिसेना पर उगली होगी आग?

जाने सिर्फ दुश्मनों की चढ़ाई की ही या
किसी बेगुनाह की फरियादी तालियों की गूँज
भी पहुंच पायी होगी ताज तले कानों तले?

जाने कितने ही बेजुबान गुलामों के
खून पसीने की नगीनों से सज सज
चमक उठते होंगे बादशाहों के सर के ताज़?

जाने क्या किसी बुर्ज के पीछे से
मंदिरों के घंटों की गूँज मिल किसी और
बुर्ज के आती अजाऩ छेड़ते होंगे नये सुर?

जाने उस ऊँची बुर्ज के कोने से
लौह सलाखों के पीछे जंजीरों में जकड़े
कितनों की आहें घुट बददुआएँ गई बरस?

जाने क्या सूखे इन गहरे हम्मामों में उतरते
रानियों बेग़मों के पाँवों के स्पर्श से शर्मा
हसीन किस्सों को छेड़ने को है आतुर बावलियाँ?

मन में उठते अनगिनत शंकाओं, सवालों पर
जीवन की नश्वरता की अमर छाप लगा
अभेद्य सा खड़ा ये गोलकुन्डा का अजब किला।

जर्रे जर्रे में अनूठे किस्सों को कर महसूस
पर, न छेड़ इन सोये पत्थरों को ऐ सैलानी!
गो कि यहाँ खामोशियाँ करती हैं सरगोशियाँ...
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होलिका 

10-03-2017
16:45

कहीं चौराहे पर फिर होलिका जलाने की पुरज़ोर तैयारी हो रही होगी। बच्चों की टोली घर घर जा कर दरवाजे की साँकल पीट पीट कर माँग रहे होंगे - " ए भगवनिया, तोरे सोने के किवड़िया, तोरे चानि के झरोखवा, दूगो लकड़ी द, लकड़ी नइखे त दूगो गोइंठा द।" 
और जब तक उनकी माँगें नहीं पूरी होती, तब तक गाने का सूर क्रमशः तीव्र होता जाता। वो भी क्या दिन थे, 'प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग' से बेखबर...
संवाद 

12-02-2017
11:34

"फ्लाईट में तो ट्रेन से भी ज्यादा झमेला करता है। हमारा एक एक सामान खोल खोल के देखा।
हम भी बोल दिए कि कुछ भी कर लो पर हमारा दवाई इधर से उधर नहीं होना चाहिए। बताओ भला पहिले से चेकइन कईला से का फायदा हुआ, सिकरटी वाला ने टिकिट पर मुहरे नहीं मारा। फिर जा के मुहर लगवा के अपिने लाया। पैसवो लगावो अउरो एतना दिक्कत झेलो, हुँह।"

- बंगलौर-पटना फ्लाईट में उपरोक्त संवाद सुनने में बड़ा ही कर्णप्रिय लगा। कथन की सत्यता को पूर्णतया नकारा भी नहीं जा सकता।
सूखी आँखें 

04-02-2017
20:04

कुछेक वर्ष पहले जब उसकी आँखें कड़ी कड़ी सी रहने लगी थी तो विद्यालय में सबों की आँखों के चेकअप के साथ उसने भी अपनी आँखों का चेकअप करवाया। नेत्र चिकित्सक ने पर्चा लिखा कि आँखें सूख गई हैं और लुब्रिकेटिंग आई ड्राप दो-दो बूंद सुबह शाम डालने को कहा। उसे चिकित्सक की सलाह समझ नहीं आई "उसकी आँखें तो अक्सर गीली रहा करती हैं तो सूखने कैसे लगी? सूखी आंखें होती भला तो आँसू कैसे बहते? और तो और, दो बूंदें भला सूखी आँखों को गीला रखने में कैसे कामयाब होंगी जो आँसूओं के सैलाब न कर सकें?" उसे नेत्र चिकित्सक की योग्यता पर शंका हुई। उधर लुब्रिकेटिंग आई ड्राप कमरे के ताखे पे और इधर उसकी आँखें, दोनों ही सूखते रहें। अलबत्ता एक बात का उसे संतोष अवश्य है कि उसकी आँखें भले ही कड़ी सी हो गई हैं पर नजरों में स्निग्धता है।
पहेली 

22-09-2016
12:05

रात गहराती जाती है उधर
इधर नींद साथ छोड़ जाती है
अनसुलझे प्रश्न, हड़ताली बन,
आँखों की चौखट पर धरना दे बैठते हैं
सुषुप्त मस्तिष्क करती है तब
रात के अंधेरे से सरगोशियाँ ।
पूर्ण विराम 

27-07-2016
22:37

साँसे क्लांत जब चुकने को हों,
स्पंदन थक हार जब थमने को हों,
जीवन पर तब पूर्ण विराम लगा
छेड़ देना मुक्ति राग की तान।

क्षितिज पार है देखो-आतुर,
प्रस्फुटित होने को नव विहान।
04-07-2016
19:16

जाने की घड़ी आ गई।
सोचा नहीं था कि 
यहाँ से जाऊँगी भी कभी।
पर जाने की घड़ी आ गई।

बिताए यहाँ मैंने अपने चालिस के दशक
अब जब पचासवें दशक में आई
तो इसके उत्तरार्ध में
जाने की घड़ी आ गई।

बिताए इन तेरह सालों में
सबके लिए तो जीया ही
खुद से खुद का जब हुआ राबता 
तो जाने की घड़ी आ गई।

कुछ गम के कुछ तम के पल बीते
यहाँ सबके साथ कभी रो के कभी हँस के
जब ठहराव का होने लगा इतमीनान
तो जाने की घड़ी आ गई।

पहले जो जाती तो रहती थी आने की बाट
अबके जो जाऊँगी तो जाने कब आ पाउँगी
इसी ऊहापोह में उलझ सुलझ
अन्तत: जाने की घड़ी आ गई।

किया कई बार जी को कड़ा 
जब भी मन उदास कमजोर पड़ा
आज विदा के इस बेला में मन है नम
कि अब तो बिछड़ने की घड़ी आ गई।

वहाँ जब खोलूंगी लँच का डब्बा तो 
कैसे गले तले उतरेगा निवाला
डबडबाई आँखें के आगे तिर जाएंगे
यहाँ का मिल बाँट साझा खाना।
शायद होगा वहाँ चम चम सा शिक्षक कक्ष
पर आँखें ढूंढेगी तुम्हें
कान तरसेगें तुम्हारे बोल।
न रहेगी वो कुरसी की खींच तान
न साझे का खानपान।
न समवेत स्वर में होगी
अधिकारियों की शिकायतें
न एक साथ किसी शरारती बच्चे पर
मिल कर डाँट फटकार लगाना
कभी कड़वी मीठी नोंकझोंक
कभी चुगली कभी gossiping
याद आ आ मन हो जाएगा उदास
चेहरा घुमा डबडबाई आँखें लुंगी पोंछ
व्याकुल हो तब करूँगी WhatsApp
और facebook तथा फोन पर तुमसे बातें।
यह जानते हुए भी कि शनैः शनै 
स्मृतियाँ होती जाती धूमिल
कुछ नई स्मृति के तले दबती जाती 
फिर जाने की घड़ी है आ जाती।

सो अब जाने की घड़ी आ गई।
सोचा भी न था कि 
यहाँ से जा सकूंगी कभी
पर आज मोह माया से बंधी
यहाँ के मोह माया को छोड़ने की घड़ी है आ चली
सो लेती हूँ अब आप तुम सबों से विदा
कि अब जाने की घड़ी है आ गई।
Dragon fly

23-06-2016
22:16

Dragonfly, dragonfly, 
Where do you come from
Floating by?

Up above from the sky,
Like a helicopter
Hovering bye bye.

Sitting on edge like a Pi,
With your head down 
As if feeling sleepy shy.

Dragonfly dragonfly,
Why do you come 
Floating by?

Inside the bottle you may die, 
Your wings crushed 
Nobody to hear you cry.

Fly free from hands down below,
Sit and spread your tired wings 
On the brow of the rainbow.

Dragonfly, dragonfly!
Can you sing a song for me 
Before I bid you bye bye?
एक मौन संवाद 

30-01-2017
16:23

घर नहीं था वो सिर्फ।
हाड़ माँस का था 
जीता जागता इंसान,
जिससे होती थी बातें
इकतरफा ही सही,
पर वह था मूक श्रोता
और वह एकाकी वक्ता।
वह बोला करती 
और घर सुना करता।
न कहीं प्रतिवाद
न कहीं विवाद
बस इक मौन संवाद।
23-09-2016
08:33

पूरब में किरण उगी है
खेत खलिहान में जा बिखरी है
ओस की बूंदों को सेंक सुखा
अब खिलने खेलने चली है।

पूरब में किरण उगी है
घर के मूंडेरों पर जा बैठी है
खिड़कियों से अंदर झाँक ताक 
अब काम काज करने चली है।

पूरब में धूप खिली है
घरों के छतों पर जा चढी है
सबके सर पर नाच नाच
अब सुस्ताने को चली है।

पूरब में धूप खिली है 
छतों से विसर्पित हो फिसल 
दूर पेड़ों की फुनगियों से 
अब फुसफुसाने को चली है।

पूरब में धूप खिली है
पेड़ की डालों से लटके
झूले पर हल्की पेंगे भर भर 
अब जड़ों के तले सोने चली है।

Sunday, 23 April 2017

MUSINGS

 Walking alone opens up to an aura of smells, sights, people who or which struck some resemblance with the past already registered in your mind and that keeps you lost in the musings that could either be visible in the form of your lips stretching ear to ear in a broad grin or a frown on your forehead. Your mind becomes a curry pot of spicy thoughts. Sometimes you have to slacken your pace as you are confronted with walkers who seems to be birds of same feather flocking together, all moving in a straight horizontal line like partridges leaving you little space , making you glance sideways which way to go and then you have no option to confront this congested traffic of partridges except to step down on the pavement. Sometimes you squeeze your body like a strand of thread through that tiny hole in the needle head to slide out between two or more than two lost friends, meeting after a long gap of time.
Now that there is little time for walking, some of the past musings during the morning walks in the Sanjay Gandhi Botanical Park bring only nostalgia and wistfulness...