Saturday, 10 December 2016


स्त्री: समय और सच
05-08-2016
21:48
भरे समाज में सर उठा जीती
तब वह एक अकेली स्त्री थी।
दर्पण में उभरे अपने
प्रतिबिंब को हर कोणों
से निहारने में मग्न स्त्री।
पकते बालों को रंग,
अपने उन चंद हसीन
खोये पलों को ढूँढती स्त्री।
नहीं पूरे होने वाले स्वप्नों में
पेंगे, उड़ानें भरती स्त्री।
खोए कदमों की आहटों
की प्रतीक्षा करती एक स्त्री,
हाँ, एक अकेली स्त्री,
अपने एकाकी परिवेश में
अपनी कहानी गढती स्त्री।
अब यहाँ वह एक माँ है।
अपने कोखजाए बच्चों की माँ।
उनके बीच उनके साथ
बचपन जीती हुई एक माँ।
बच्चों के आँखों में झलकती,
अपनी ममता की कसौटी को
परखने, निहारने में मग्न माँ।
खिचड़ी होते बालों को,
यूँ ही लपेट-सपेट रसोई में
उनके रूचि के पकवान बना
उनकी बाँट जोहती माँ।
हाँ, यहाँ वह एक माँ है।
अपनी ममता को परवान चढते
देख, कभी इतराती तो
कभी फूली न समाती माँ।
एक समय वह भी था
जब वह एक बेटी थी।
अपने पिता की दुलारी बेटी,
माँ की आँचल से बंधी बेटी।
जो कभी पत्नी तो कभी माँ,
इन दोनों छोरों के बीच
अपने स्त्रीत्व से बेखबर,
समय की सूई पर झूलती बेटी।
जब स्वयं का बोध हुआ तो
आँखों पर चढे चश्में और
ललाट पर गहराती रेखाएँ थी।
उम्र का वह सफर तय हो चला था
जिसमें बेटी, पत्नी, माँ के पड़ाव तो थे
पर, स्त्रीत्व के पड़ाव पर
हरी सिग्नल की बत्ती थी।

Sunday, 28 August 2016

अधूरे स्वप्न

पात्र :
बालक 
पिता 
होटल वाला 
महाजन 
होटल वाले की माँ 

(बचपन सभी बच्चों का जन्म सिद्ध अधिकार है जो माता-पिता के प्यार और देख-रेख में सभी को मिलना चाहिए, ये गैरकानूनी कृत्य बच्चों को बड़ों की तरह जीने पर मजबूर करता है। इसके कारण बच्चों के जीवन में कई सारी जरुरी चीजों की कमी हो जाती है जैसे- उचित शारीरिक वृद्धि और विकास, दिमाग का अनुपयुक्त विकास, सामाजिक और बौद्धिक रुप से अस्वास्थ्यकर आदि। इसकी वजह से बच्चे बचपन के प्यारे लम्हों से दूर हो जाते है, जो हर एक के जीवन का सबसे यादगार और खुशनुमा पल होता है। ये किसी बच्चे के नियमित स्कूल जाने की क्षमता को बाधित करता है जो इन्हें समाजिक रुप से देश का खतरनाक और नुकसान दायक नागरिक बनाता है। बाल मजदूरी को पूरी तरह से रोकने के लिये ढ़ेरों नियम-कानून बनाने के बावजूद भी ये गैर-कानूनी कृत्य दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है।
क्या आपको नहीं लगता कि कोमल बचपन को इस तरह गर्त में जाने से आप रोक सकते हैं? देश के सुरक्षित भविष्य के लिए वक्त आ गया है कि आपको यह जिम्मेदारी अब लेनी ही होगी। क्या आप लेंगे ऐसे किसी एक मासूम की जिम्मेदारी?
इन्ही कुछ प्रश्नों के जवाबों को तलाशता, एक छोटा सा प्रयास है "अधूरे स्वपन"- आप सब इसपर गौर फरमाएं -
(बालक घर के कुछ काम निपटा पॉलीथिन में किताबें सँभालते हुए निकलते हैं)
बालिका: भैया स्कूल जा रहे हो? मैं भी जाना चाहती हूँ. पर माँ मुझे नहीं जाने देती  
पिता: कहाँ चले? और ये हाथ में क्या है?
बालक: पिताजी स्कूल जा रहे हैं. काम सारा निपटा दिया है. अगर थोड़े पैसे हैं तो दो...फी जमा नहीं की तो नाम कट  जायेगा  
पिता: बंद करो बकवास, पैसे नहीं है तुम्हारे फी भरने को. स्कूल में पढ़ेंगे! दो हाथ और काम करेंगे तो घर का ख़र्च निकलेगा।  ये नहीं सूझता?
माता: अरे रश्मि, चल तुझे भी साथ ले चलूँ मालकिन के घर. मेरा हाथ बटा देगी तो दो चार और घर के काम पकड़ लूंगी। फिर तेरे ब्याह के पैसे भी तो जमा करने हैं.
बेटी: माँ, मुझे भी स्कूल जाने दो।  मुझे अभी से काम नहीं करने 
माता अभी से नहीं तो कब? अभी से करने लगेगी तबी तो कुछ पैसे जमा होंगे. 
पिता (बालक से): चुपचाप से तू होटल वाले के यहाँ जा. मैंने उससे बात कर ली है। वो तुझे काम पर रख लेगा. 
बालक: पर बाबा, कुछ पढ़ लूंगा तो मुझे नौकरी मिल जाएगी न 
पिता: (पालीथीन छीन फेंक देता है) बहुत पढ़ा दिया. स्कूल की तरफ टाँगे बढाई तो खैर नहीं। इतने बड़े हो गए. जा कर दो पैसे कमा कर ला.
दृश्य २ (होटल) 
बालक: बाबा ने भेज है काम करने वास्ते
होटल वाला - ठीक है, पर मन लगा कर काम करियो, किसी भी ग्राहक को नाराज नहीं करीयो।  जाओ वो जूठे बर्तन पड़े हैं, ठीक से मलइयो एक भी ग्लास टुटा तो तेरी पगार से काट लूंगा 
बालक: मैं मन से ही करूँगा चाचा ( पालीथीन रख देता है)
(बर्तन धोता, चाय देता। ....महाजन का प्रवेश )
महाजन होटल वाले से): चल मेरे पैसे निकाल. कब से उधार ले रखा है. चुकता करने में आज कल आज कल पर टाल रहा है 
होटल वाला: अरे मुन्ना साहब वास्ते गर्मागर्म चाय लाओ ( गिड़गिड़ा कर) भाई अगले महीने बिलकुल चूका दूंगा। होटल थोड़ा मंदा चल रहा है 
महाजन; आज तो रकम लिये बगैर मैं नहीं टलने वाला( बैठ जाता है) नहीं दिया तो बुलाता हूँ दो चार गुंडों को)
होटल वाला पसीने पोंछते हुए: अच्छा आप चाय पिए; मैं देखता हूँ  
( महाजन को चाय देते हुए मुन्ने के हाथ से चाय छलक कर उसके कपडे को गन्दा कर देते है )
महाजन :(मारते हुए पानी का ग्लास मुँह पर )कौन है बे तू ? चाय तक देने नहीं आता।  मेरी कमीज का कबाड़ा कर दिया 
होटल वाला : पैसे देते हुए ) क्या गलती हो गयी साहिब?
महाजन:किसअनाड़ी को काम पर रख लिए हो? मेरी नयी कमीज का सत्यानाश कर दिया 
. (चल देता है)
(मुन्ना मार खाता  है पालीथीन के साथ बाहर)
दृशय ३ 
(होटल वाला साईकिल से वापस आते वक्त मुन्ने को स्ट्रीटलाइट में पढ़ते देखता है , ठठक कर रुक जाता है 
फिर घर पहुँचता है)
माँ: दे आये पैसे? इतने मुश्किल से इक्कठे किये थे मैंने। कितना कहा की पढाई करो तो ढंग की नौकरी मिलेगी।  पर की नहीं. हॉटेल खोलेंगे महाजन से पैसे काढ़ कर ? देख लिया बात नहीं मानने का नतीजा। जो भी कमाई होती है कर्ज चुकता करने में खर्च हो जाता है 
होटल वाला गम शूम हो ( खुद से - सही में तब पढाई की होती! और वो मुन्ना बेचारा ! मैं कितना बड़ा गुनाह कर बैठा! कल फिर कोई मेरे जैसा बनेगा कर्जदार। बेचारा मुन्ने को मैंने कितना मारा ! मैं कैसे प्रायश्चित करूँ
दृश्य ४ होटल में 
मुन्ना डरते हुए ) चाचा अब से ध्यान लगा कर काम करूँगा 
काम कर घर जाते समय होटल वाला मुन्ने के हाथ में पैसे की जगह किताब रखता है 
मुन्ने की आँखें ख़ुशी से छलक जाती है होटल वाला उसका हाथ पकड़ स्कूल ले जाता है) 
- मैं इतिहास नहीं दोहराने दूंगा।  तुम्हारी जगह यहाँ है होटल में नहीं।
अभी तो तेरे पंख उगे थे , अभी तो तुझको उड़ना था 
जिन हाथों में कलम शोभती, उनसे मजदूरी क्यों करानी? 
मूक बधिर पूरा समाज है, चलो क्रांति जगानी है 
इन हाथों में कलम किताब दे नयी तान छेड़नी है। 














अस्तित्व

पात्र - मोहन , कृष्णा , गोपी, मोहन के पिता, स्कूल प्राचार्या
दृश्य १ 
(मोहन , कृष्णा , गोपी दर्शकों की ओर पीठ कर खड़े.... मुड़ते हैं) (बल्ले बल्ले प्यार के दुश्मन हाय हाय। )
मोहन- अरे! चौक गए हमे यहाँ देख कर? जी हाँ, अक्सर ऐसा ही होता है. आप सब हम लोगों को ऐसी ही हैरत और हिकारत भरी नजरों से ही तो देखते हैं. हमे हमेशा समाज के तथाकथित दायरे से बाहर ही तो रखा जाता हैं। जब की इसमें हमारा कोई दोष नहीं की हम सब आपसब से अलग हैं। हमे भुलाऐ नहीं भूलते वो दिन जब हमे घर से, दोस्तों से, समाज से सिर्फ और सिर्फ घृणा ही घृणा मिली और पहना दिया गया हमारे माथे पर जिल्लत भरी ताज।
दृश्य २ 
परिवार में माँ पिता बच्चे को गोद में लिए.... हिजरों का झुण्ड नाचते हुए (सज रही गली गली माँ सुनहरे गोटे में, सुनहरे गोटें में सुनहरे गोटें में  .... )
हिजड़ा : अम्मा तेरे घर तो मेरा बच्चा जन्मा है। ... हम लेने आये है हमे दे दो। . 
माँ: नहीं नहीं ऐसा मैं नहीं कर सकती, मैं अपने जिगर के टुकड़े को नहीं दे सकती 
हिजड़ा : छुपा के क्या करोगी अम्मा। समाज तुझे ताने दे दे मार डालेगा. हमे दे दो... 
 माँ; लोगों को नहीं हमे पालना  हैं... मैं नहीं अपने बच्चे को अलग  सकती... इस बच्चे का कोई कुसूर नहीं.. 
(नेपथ्य से: अरे सुना,! फलाने के यहाँ छक्का जन्मा है....सच में!... है! ये तो बड़े शर्म की बात है )
माँ: मेरी बच्ची मेरी संतान है मैं इसे पालूंगी। मैं इसे अपने दूसरे बच्चों की तरह पढ़ाऊंगी, इसे अपने पैरों पर खड़ा करुँगी। अपने मुहँ अपने पास रखो समाज के ठेकेदारों। 
दृश्य ३. 
पिता: नहीं नहीं, ऐसा न कहिये प्रिंसिपल साहिबा, अगर आप हमारे बच्चे को विद्यालय में दाखिला नहीं देंगी तो उसके भविष्य का क्या होगा ?
प्रिंसिपल: देखिये हम आपसे कह चुके हैं की लड़के या लड़की को ही दाखिला देते हैं, आपके बच्चे के लिए इस विद्यालय क्या पुरे समाज में कोई जगह नहीं।
पिता: आप पढ़ी लिखी है, अगर आप भी नासमजों जैसा व्यव्हार करेंगी तो हमारा समाज कैसे सुधरेगा ?
प्रिंसिपल:मुझे आप समाज सुधारक बनने का सुझाव न दें, मैं तो कहती हूँ की ऐसे बच्चों के पैदा होते ही इस समुदाय के लोग उसे ले जाते हैं. आप इस बच्चे को इन्ही के सुपुर्द क्यों नहीं कर देते?
पिता: कैसी बातें करती हैं आप अगर बच्चा विकलांग पैदा होता है तो क्या हम उसे किसी और को दे देते हैं? नहीं ना? तो फिर मेरे बच्चे में क्या कमी है जो मैं उसे किसी और को दे दूं? मुझे आप से ये उम्मीद नहीं थी.
प्रिंसिपल: लीजिए ये नामांकन फार्म।  भरिये इसे. क्या भरेंगे इसमें लड़का या लड़की? मैं आपके बच्चे को किस श्रेणी में डालूँ? है कोई जवाब?
पिता: तो बना डालिये एक और श्रेणी। समावेशी शिक्षा, इंक्लूसिव एजुकेशन की नीति क्या बस कागज पर उगे, रचे नियम मात्र हैं? लानत भेजता हूँ समाज के बने इन उसूलों और नियमों पर।
प्रिंसिपल: बड़े आये नियमों की बात करने। आप जाये मुझे और भी बच्चों के काम करने दें
दृश्य ३
मोहन: मेरे माता पिता का सम्मान छलनी छलनी हो जाता लोगों के तीखे व्यंग वारों से और मैं हताश हो,अपने जन्म से जुड़े अनगिनत प्रश्नो के हल ढूंढता।
कृष्णा: (हाथ चमकाते हुए) हाय हाय! तू इनलोगो से इतनी देर से क्या बातें क्र रहा है मोहन? अरे, ये तो बहरे हैं बहरे कान वाले बहरे। इन्हें अपने दर्द की आवाज सुनाई देती हैं, हमारी नहीं। अगर जो मेरे परिवार ने मुझे नहीं त्यागा होता तो आज मैं भी तुम्हारी तरह सम्मान की जिन्दगी जी रहा होता.
मोहन: क्यों क्या हुआ था तेरे साथ ? बता, बाटने से दुःख हल्का होता है.
कृष्णा: मेरा जन्म तो शायद मेरे परिवार के लियेजैसे दुःख और शर्मिंदगी का सैलाब ले कर आया था मोहन. दो दिन का भी नहीं था मैं कि जब मेरे मा बाप ने मुझे उन लोगों को सौप दिया जिनका मुझे से कोई रिश्ता नहीं था. अपने पराय हो गए और पराये मेरे अपने।  मैं कभी कभी सोचता हूँ रे कि तू कितना भाग्यवान है जिसे अपनों का प्यार और साथ मिला।  मैं सदा तरसता ही रहा कि कोई मुझे अपना भी कहें।
मोहन (दर्शक से) ये सच कह रहा है. हम लोग चाहे कैसे भी दीखते हैं पर हमारा दिल भी मा की ममता और पिता के प्यार पाने को तरसता है।  ऐसी हिकारत भरी तिरस्कृत जिन्दगी भला किसे अच्छी लगती है?
कृष्णा: मेरा भी मन करता है की मैं माँ की गोद में सर रख कर थोड़ी देर के लिये ही सही अपना सारा गम भूल जाऊं। क्या आप मुझे मेरी माँ से मिलवा सकते हैं ?
(मैं कभी दिखलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ, क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ ?)
(गोपी का प्रवेश) हेलो हेलो, क्या चल रहा है भाई? मोहन क्या तुम्हे पता चला- मैं पंचायत चुनाव में जीत गया , मैं मुखिया बन गया।  अरे तुम्हे क्या हुआ कृष्णा? क्यों रो रहे हो?
मोहन: बधाई हो गोपी, पर ये सब कैसे हुआ? सच में, समाज का ये सुखद बदलाव हम जैसे लाखों लोगों की जिंदगी का रुख ही बदल देगा। सरकार की नई नीति और योजनाओं से हमे समाज में बराबर समान और अधिकार मिलेंगे
गोपी: अब तो विद्यालयों में भी हमे दाखिला देने से इनकार नहीं कर सकते. हम पढ़ लिख कर अपने सारे ख्वाबों को पूरा कर सकेंगे। अब हमे शर्म से मुहँ छुपाने की जरूरत नहीं।
कृष्णा:पर सरकार से भी पहले समाज को हमे अपनाना चाहिए। हम पर हंसना छोड़ हमारा हौसला बढ़ाना चाहिए। हमे अपने परिवार से जुदा नहीं करना चाहिए। हमारा जन्म एक सजा नहीं होनी चाहिए क्योंकि हमारा गुनाह ही क्या है?
माता: बेटा कृष्णा दिल छोटा न कर. मैं तेरी माँ बनूँगी। देर ही से सही पर मैं दूंगी तुझे प्यार। तू मेरे आँचल में सोना. आ मेरे पास आ बेटा।
(कृष्णा माता के पैरो से लिपट जाता है) माँ मेरी माँ
गोपी: अरे हाँ मोहन भाई , अपना वो किस्सा जरा सुनाइए जब आपको UNO में सम्मानित किया गया।
पिता: अरे बेटा, उस पल ने तो गर्व से मेरी छाती ऊँची कर दी. जिस बच्चे को किन्नर समाज हमसे छीनने आया था, जिसे विद्यालय ने दाखिला देने से इनकार कर दिया था- उसी औलाद ने UNO जाकर अंतर्राष्टीय स्तर पर मेरा ही नहीं देश का भी नाम रोशन कर दिया,
मोहन: मैं जैसे ही वहां पंहुचा मुझे अपने भारत का तिरंगा लहराता दिखा। मैंने दौड़ कर तिरंगे को छू लिया, मेरा रोम रोम पुलकित हो उठा. मैं धन्य हो गया, मुझे जो सम्मान वहां मिला काश की अपने इस जन्मभूमि पर मिला होता पहले, मैं अपनी उस अनुभूति को शब्दों में बयान नहीं कर सकता।  मुझ जैसा हर शख्स आसमान की ऊंचाई को छूने की ताकत रखता है, जरुरत है तो बस खुली बांह और खुले ह्रदय से अपनाने की , हम आप जैसे ही है. हमारी पूरी बिरादरी इज्जत और आत्मसम्मान पाने की हकदार है. सभी अपने अस्तित्व की तलाश में हैं. क्या आप हमे हमारा अस्तित्व देंगे?
                                                              (धन्यवाद )
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Saturday, 20 August 2016

APJ Abdul Kalam water colour


श्रद्धांजलि

Country side-water colour



 सुदूर कहीं हो बसा छोटे से गांव में मेरा भी एक घर,
जहाँ ढलती हुई शाम संग ढल जाए मेरे जीवन की भी शाम। 

जलेबी का पेड़





जलेबी का पेड़
जलेबी का पेड़
18-04-2016
17:11
सुबह की सैर पर बढते उसके कदम यकायक ठठक गए। पेड़ से कुछ गोल गोल घुमावदार सा फल टपक जा धूल में गिरा था। कुछ कौन्ध सा गया उसके मस्तिष्क में, 'जलेबी'! उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। इसके पहले कि किसी के पैर उस फल को धूल धूसरित करते, उसने लपक कर उसे उठा लिया।
कहाँ दिखते हैं अब जलेबी के पेड़। उसके गांव में मुख्य सड़क से घर की ओर जाती कच्ची सड़क के किनारे जलेबी के कई पेड़ दिख जाते थे। तब वह मिडिल स्कूल में पढा करती थी जो कि घर से अनुमानतः एक मील दूर था। उसके गांव में चार महीने जून से सितंबर खूब बारिश होती थी। खेत, बगीचे, पगडन्डियाँ जलमग्न हो जाया करते। यहाँ तक कि शौचनिवृती के लिए कभी कभार पेड़ की डालियों पर चढना पड़ जाया करता था। तब कहाँ हर घर में पक्के शौचालय थे। सो, गरमी की छुट्टियों के बदले बरसात की दो महीने की छुट्टी हुआ करती थी। पूरी गरमी सुबह की स्कूल लगा करती थी। अपने भाई बहनों के साथ कन्धे पर बस्ता टाँगे पकी धूप में घर को लौटने के क्रम में वो जलेबी के पेड़ की छिछली छाँव भी बड़ी घनी लगती। वैसे पेड़ तो कई तरह के थे- आम, शीशम, बबूल इत्यादि। पर आम के पेड़ तो बगीचों में पहरेदार की लाठी तले ठमकते थे। और शीशम, बबूल में कोई खासी दिलचस्पी नहीं थी। बस, मुख्य सड़क से घर की ओर आती कच्ची सड़क के बीच एक नहरी की पुलिया किनारे जलेबी का वह उपेक्षित पेड़ बड़ा छाँवदार लगता था। बस्ता पेड़ की निचली अधटूटी डाल की खूँटी पर लटकाया और छाँह तले हरी घास पर पैर फैला सुस्ताने बैठ गए सब। मवेशियों की तरह आँखें अधखुली और नथूने फैला दो चार बार ठंडी पुरवैया की गहरी साँसे भरी। थकान चुटकियों में गायब। बच्चों की झूंड में बड़े पेड़ पर चढ डाल हिला हिला कर पके जलेबियों को झड़खाते और छोटे हरी घास पर बिखरे पके गुलाबी लाल जलेबियों को चुन चुन अपने बस्ते पर जमा करते। फिर शुरू होता जलेबियों का बाँट बटखरा। उन लाल गुलाबी जलेबियों के अधखुले परतों के बीच का काले बीजड़ों पर लिपटा सफेद पका हिस्सा कुछ खास नहीं था। पर, संभवतः आम के बगीचे की तरह पहरा नहीं होना और मुफ्त उपलब्ध होना उसे खास बना दिया करता था। भले ही, पेड़ पर चढ़ने में हाथ पैर छिले, किसी के उत्साह में छटाँक भर भी जो कमी आती। हाँ, घर पहुँच कर दर्जनों प्रश्न के उत्तर ढूँढने की कवायद बाकी बचे रास्ते होती रहती। पीठ भी पहले से ही मजबूत कर लेनी होती थी। परन्तु, दूसरे दिन बच्चों की टोली और जलेबी का पेड़- सिलसिला जारी रहता जब तक कि सारे जलेबी ना चुक जाए।
अब ना रहा वो जलेबी का पेड़ ना वो बेखबर बचपन। गाँव का वो जलेबी का पेड़ कहीं पक्की सड़क के कब्र तले तो दफन नहीं हो गया...धूल ने पोंछ कर उस टपके पल खाते हुए वह सोच में पड़ गई। पता नहीं कब बढ़ती उम्र की जिम्मेवारियों ने उन्हें सही में उपेक्षित कर दिया। इस बार वो गरमियों में गाँव जाएगी तो उन पेड़ों की खोज खबर जरूर लेगी।
वैसे तो वो जिस स्कूल में कार्यरत है वहाँ बाहरी दीवार से लगा एक जलेबी का पेड़ है पर कभी भी उसे उसपर लाल गुलाबी रंग के फल नहीं दिखे। शायद हर जाड़े में उसकी शाखाएँ कटवा दी जाती है तभी फल नहीं दिखते। या उसने ध्यान ही नहीं दिया होगा। जो भी हो, वो कच्ची सड़क किनारे का पेड़ का जोड़ नहीं ले सकता ये ईंट कंक्रीट की दीवार से लगा पेड़।
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musings










pencil sketch


रीता की चितचोर मुद्रा




Water colours





My elder sister in law

My elder sister in law
14-06-2016
10:15

My sister in law, a simpleton she may seem at first sight, yet one can learn a lot from her. She has been a paramount of patience and tolerance...I really fail to understand how she kept rein on her reactions (seething and fuming she may seem to others from inside) at my elder brother's outbursts of agitation at her being so quiet when he asked her to speak her mind out to which either she nodded her head or replied in mono syllables and this kind of response only added fuel to his fire of anger in no vain. It was he who had to retreat from the scene... She exemplifies the thesis of Gandhigiri. We used to compare her to a docile cow(सीधवा गाय). But, sometimes, her unexpected reply or statement at any topic, just and precise, left us dumbfounded. However, she is very economical with words.
One other quality is her 'less is more' principle. I never saw her placing any demand for clothes and jewelleries...even a piece of trinket was a diamond jewellery for her . If asked anything she needed, her ever ready reply was 'सब कुछ त छेबे करे'।
My children like her a lot though she doesn't show-off her love and care like others. Even my elder brother who was once always full of complaints and grudges, now acknowledge her qualities from the bottom of his heart. Far from any pretensions, she has proved herself by keeping her feet firm on unstable and rocky grounds of life, full of struggle and challenges, braving all the criticisms by others. Now she's a proud mother of an Agricultural Research Scientist bestowed with two lovely grand children.
She never goes to any beauty patlour. Beauty and spa treatments have been a far cry in her small pastoral world. But, her figure has always been slim as she is up at the crack of dawn, tending to cattle, broom cleaning the aangan and cooking, looking after the plants and the family members that she has hardly any time to catch a few hours of rest (labours scarce these days either due to MNREGA or their exodus for seeking employment in other states). A glow of contentment radiates from her wrinkle free face...the glow which is inside out. I never saw her falter or losing her calm even in dire, desperate moments. Whatever I pen down in her praise, will be little to encapsulate her in words. She is simply adorable...love you bhabhi.

आलू के छिलके

आलू के छिलके
आलू के छिलके
09-06-2016
22:38
बाबू जी के खाना खा लेने पर उसकी नजर अनायास ही प्लेट के एक किनारे पड़े आलू के छिलकों पर जा पड़ी। बाबूजी सिर्फ आलू की भुजिया के छिलके को ही नहीं अपितु अंगूर को भी छिल कर खाते हैं। और तो और, वे अनार के दानों को भी बीज समेत नहीं खाते। उन्हें मुँह में ही गूदे से अलग कर प्लेट में वापस रख दिया करते हैं। और एक वह है कि छिलके समेत ही बनाया और खाया भी करती है। अक्सर बचपन की एक छोटी सी बात आदत बन जाया करती है।
तब वह माउंट कार्मल डिगवाडिह जो कि अब झारखंड राज्य में है, के फर्स्ट स्टैंडर्ड की छात्रा थी। तब टिफिन के डब्बे में पराँठे व आलू की भुजिया का ही ज्यादा चलन था। हाँ, अलबत्ता किसी किसी के डब्बे में मख्खन लगी डबल रोटी और जैम भी रहा करता था जिसे तरसी निगाहों से बस देख कर सब्र कर लिया करती क्योंकि उसके घर में डबल रोटी बीमार को पथ्य के रूप में दिया जाता था और वो भी गरम दूध में डाल कर। सारा कुरकुर डबल रोटी का स्वाद कुरकुरा कर रह जाता।
जो भी हो, माँ के हाथों के बने घी लगे पराँठे और छिलके समेत आलू की मसालेदार भुजिए का स्वाद भूलाए नहीं भूलता। लँचटाईम में सभी मैदान में हरी घास पर गोल घेरा बना कर बैठ कर अपना अपना टिफिन खाते। सप्ताह में किसी एक दिन सीनियर्स द्वारा सभी के लंच बाक्स का औचक निरीक्षण होता था कि किसी ने खाना छोड़ा या बरबाद तो नहीं किया।
उस दिन भी छुट्टी के पहले अन्तिम घंटी में लाईन लगा कर सबके लंच बाक्स की चेकिंग शुरू हुई। उसने तो अपना पूरा नाश्ता खा ही लिया था। सो जब उसकी बारी आई तो उसने बगैर किसी हील हवाला के अपना लंच बाक्स दीदी लोगों के सामने कर दिया।
"हैं...ये तुमने आलू के छिलके क्यों छोड़ रखें हैं? चलो, अभी इन्हें खाओ।" उसे घुड़की लगी।
"दीदी, मैंने तो सब खा लिया है। कुछ भी नहीं छोड़ा। ये तो सिर्फ छिलके हैं। इन्हें भला कैसे खाऊँ" उसने डरते डरते अपनी सफाई पेश की।
"तो आलू छिल के क्यों खाया? अब तो इन्हें खाना ही पड़ेगा वरना चलो मदर के पास।"
"नहीं नहीं, अभी खाती हूँ।" उसने उन सूखे छिलकों में से थोड़ा उठा कर मुँह में डाल कर चबाना शुरू किया। सूखे छिलके भला क्यों गले में नीचे उतरे? ऐसी अपमानजनक स्थिति और सीनियर्स का डर अलग। उसकी आँखें विवशता में डबडबा गई। पानी के घूँट से किसी तरह छिलकों का पहला निवाला निगला। इस बीच वो जल्लाद सीनियर्स आगे किसी और पर अपना रौब झाड़ रही थीं। बस, आव न देखा ताव, सारे छिलके बाउंड्री वॅाल के उस तरफ और खाली डब्बा किताब के बक्से में। तब पीठ वाली बैग नहीं बल्कि स्टील या अल्मुनियम वाले छोटे छोटे बक्से किताब कापियाँ के लिए होते थे। घर पहुंचने के बाद माँ द्वारा रोजाना वाली चेकिंग हुई। उसने माँ से वह छिलके खाने वाली पूरी बात छुपा ली। पर बात उसके बालमन में कहीं अन्दर जा ऐसी गहरी पैठी कि छिलके समेत आलू खाना और बनाना उसकी आदत बन गई।
सम्भवत: जीवन जीना भी कुछ ऐसा ही है छिलके समेत। छिलकों को हमेशा फेंक नहीं सकते। कभी कहीं ये छिलके स्वादिष्ट बनाते हैं, कभी कहीं ये छिलके अनचाहे गले तले निगला जाते हैं या निगलने पड़ते हैं तो कभी कहीं इन छिलकों की पहले ही सफाई कर देते हैं। पर जब भी आलू के उतरे छिलकों पर उसकी नजर पड़ती है, छिलकों वाली वो घटना उसके स्मृति पटल में बरबस कौंध जाया करती है। छिलकों की उपयोगिता और महत्ता को पूर्णतया नजरअंदाज नहीं कर सकते।

आटे का दूध

आटे का दूध
आटे का दूध
17-06-2016
09:18
गाय, भैंस, बकरी आदि के दूध से तो सभी वाकिफ हैं परन्तु 'आटे का दूध?', सुना नहीं होगा आपने। यहाँ सोयाबीन के आटे से भी बने दूध की नहीं बल्कि खालिस गेहूँ के आटे से बने दूध की बात हो रही है।
सन् १९७३ की बात है। तब वो धनबाद के माउंट कार्मल के पाँचवीं स्टैंडर्ड की छात्रा थी। उसके पिताजी का ट्रांसफर डिगवाडिह से धनबाद हो गया था। बड़े भारी मन से वो बड़े हाते, हरी लॅान वाले आलीशान बँगले से विदा ले धनबाद के हीरापुर के घनी आबादी वाले मोहल्ले में एक किराये के दो मंजिलें वाले मकान में आ जमे। कहाँ वो खुली खुली कालोनी का बड़ा बँगला जहाँ रंगबिरंगे फूलों वाली क्यारियाँ थी, बैडमिंटन कोर्ट था, बड़ा सा मैदान था जहाँ भाइयों और कालोनी के अन्य हमउम्रों के साथ उसने हाकी से गुलेल व गिल्ली डंडे, पतंग उड़ाने तक का खेल खेला करती थी और कहाँ ये इन्डियन पेनिन्सुला की तरह तीन ओर से घरों से घिरा सामने सड़क की ओर खुला मकान जहाँ छत पर सिर्फ छुट्टियों में दुपहर में कंचे खेले जा सकते थे या फिर घर के अंदर कैरम नहीं तो लूडो। दोनों ही खेलों में वह तीन भाई बहन होने के कारण एक अदद पार्टनर की जरूरत को पूरा करने के लिए मम्मी की या नौकर शिवलाल जी की खिदायत करनी पड़ती। शिवलाल में 'जी' की पूँछ लगाना बड़ा अहम् है क्योंकि वो उनकी सारी गतिविधियों पर नज़र रखता और गाहें बिगाहे उनकी चुगली लगाने की धमकी दे उनसे अपनी बात मनवाता। जो भी हो, बड़ा ही काम का आदमी था शिवलाल। कंचे खेलने की सख्त मनाही थी क्योंकि मम्मी के नजर में उसे गली कूचे के लोफर खेला करते थे। सो, दुपहर में उनके सो जाने पर चुपचाप छत पर भाइयों के साथ थोड़ा बहुत खेल लिया करती। वैसे उस खेल में उसकी खासी दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि कंचे पिलाने के लिए वो निशाना सही नहीं साध पाती थी।
इस नये मकान के सामने सड़क के उस पार चहारदीवारी से घिरा 'रथ मन्दिर' और ठाकुर बाड़ी था जहाँ से सुबह सुबह घंटियों की आवाज आती। उसके पिताजी बड़े ही धार्मिक स्वभाव के थे और शिव भगवान में गहरी आस्था रखते थे। यहाँ आते ही उनके पूजा पाठ में एक और बढोतरी हुई। सोमवार के सोमवार सुबह सुबह सबों को साथ ले चाँदी के गिलास से शिवलिंग पर दूध चढाना। दूध बह कर कहाँ जाता- इसे जानने के लिए उसका बालसुलभ मन बड़ा व्याकुल होता। पर, संतोषजनक उत्तर कहीं से नहीं मिलता।
दूध वाली उलझन तब और बढ़ी जब एक दिन उसने छत पर से एक छोटी सी भूरी सफेद बिल्ली को बगल के मकान के खपड़-छत पर बैठे देखा। बस उसका मन उसे दूध पिलाने को मचलने लगा। नीचे आई और माँ से उस बाबत बात की तो सीधे स्पष्ट लहजे में ना सुनने को मिला, "नहीं, बिल्ली को दूध पिला कर परकाना नहीं है। दूध इतना फालतू नहीं हुआ है कि बिल्ली को पिलाया जाए। एक दिन पिलाओगी, घर में घुसने लगेगी। देखा पिलाते तो खैर नहीं, समझी"?
वह मन मसोस कर रह गयी। सोचा कि अच्छा जब ये स्नान को जाएंगी तो चुपके से दूध निकाल कर एक कटोरी में डाल छत पर रख आऊंगी। अब न तो उसे पढाई करने में मन लगे न किसी और काम में। आँखें बस मम्मी के पीठ पर मानों चिपक गई। एकाध बार उसकी टकटकी पर मम्मी की सवालिया निगाह उठी तो उसने फटाक से अपनी आँखें नीचे किताब पर झुका ली। जैसे ही मम्मी गुसलखाने में घुसी, उसने लपक कर दबे पाँव धीरे से एक हाथ में कटोरी ले दूसरे हाथ से फ्रिज का दरवाजा खींचा। पर, ये क्या, फ्रिज का दरवाजा मानों जाम हो गया हो। उसने कटोरी को टेबुल पर रख कर दोनों हाथों का जोर लगा कर खींचा। पर, दरवाजा टस से मस नहीं हुआ। शायद मम्मी को उसकी नीयत पर शक हो गया था और इस वजह से फ्रिज को वो लॅाक कर के स्नान करने चली गईं थीं।
बिल्ली से इतना डर! उसे विश्वास नहीं हुआ। तभी उसे कुछ याद आया। आटे की लेई बनाने के लिए जब आटे को पानी में घोलते हैं तो वो दूधिया हो जाता है। बस, इतनी सी बात! उसे अपनी होशियारी पर बड़ा नाज हुआ। आनन फानन में वह रसोईघर में आटे के कनस्तर से चम्मच भर आटे को कटोरी में पानी ले दूध की तरह पतला घोला। हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा! दूध तैयार! इतराती वह सीढियाँ चढ छत के मुंडेर पर आटे के दूध की कटोरी रख आई। बिल्ली अभी भी वहीं बैठी थी। आँखें मींचे कर उसे देख रही थी। मम्मी के गुसलखाने से बाहर निकलने की आवाज आई। वह दनादन सीढियाँ उतरती आई और किताब खोल कर बोल बोल कर पढ़ना शुरू कर दी। पर, उसका ध्यान बिल्ली पर लगा रहा कि बिल्ली ने दूध पीया कि नहीं। दुपहर में मम्मी के सो जाने के बाद के बाद वह पुनः छत पर गई। दूध की कटोरी वहीं पड़ी थी मुंडेर पे। उसे समझ में नहीं आया कि बिल्ली ने दूध चट क्यों नहीं किया जबकि बिल्ली तो दूध पीने के लिए बदनाम है। उसे बड़ी खीझ आई।
शायद बिल्ली को आटे का दूध पसंद नहीं आया। क्या होता जो शिवलिंग पर दूध नहीं चढा बिल्ली को ही पीने को दे देते?
इतने बरस बाद, जब अपने बेटे के घर के पोर्टिको में बिल्ली के बच्चे को म्याऊँ म्याऊँ करते पाया तो फ्रिज खोल कर उसने कटोरे में दूध डाला और आगे बढा दिया। बिल्ली के बच्चे ने कटोरे में सर डाला और दूध चाटना शुरू कर दिया। आटे का दूध लेई बनाने के लिए सही है, पीने के लिए नहीं ।😊

Dragon fly

Dragon fly
23-06-2016
22:16
Dragonfly, dragonfly,
Where do you come from
Floating by?
Up above from the sky,
Like a helicopter
Hovering bye bye.
Sitting on edge like a Pi,
With your head down
As if feeling sleepy shy.
Dragonfly dragonfly,
Why do you come
Floating by?
Inside the bottle you may die,
Your wings crushed
Nobody to hear you cry.
Fly free from the hands down below,
Sit and spread your tired wings
On the brow of the rainbow.
Dragonfly, dragonfly!
Can you sing a song for me
Before I bid you bye bye?

पूर्ण विराम

पूर्ण विराम
पूर्ण विराम
27-07-2016
22:37
साँसे क्लांत जब चुकने को हों,
स्पंदन थक हार जब थमने को हों,
जीवन पर तब पूर्ण विराम लगा
छेड़ देना मुक्ति राग की तान।
क्षितिज पार है देखो-आतुर,
प्रस्फुटित होने को नव विहान।

Nostalgia - बंद मकान

Nostalgia -
बंद मकान
26-07-2016
20:50
मेरा वो मकान
था जो आशियाना मेरा
तुम्हारे गुजरने के बाद भी
गुलजार कर रखा था जिसे,
आज है बंद पड़ा।
दीवारें जो थी करती
मुझसे मूक बातें,
उसकी चुप्पी का शोर
मेरे कानों में है गूँज रहा।
बहरी बन ताले लटका आई,
अपना वो मकान बन्द कर आई।
मकान जो था कभी मुकाम
दीवारें जिसकी थी मेरी ढाल
सर पर छत और पैरों तले जमीं ने
जगाया था वजूद का अहसास।
आज उसी मकान को कब्र बना आई।
अपना वो मकान बन्द कर आई।
मेरे अश्रुसिंचित गमलों में खिले
फूल-फूल, पत्तों पर थी मेरी पहचान
जहाँ खिलती थी मेरे स्पर्श की मुस्कान
वो इंद्रधनुषी मुस्कान बाँट आई
अपना वो मकान बंद कर आई।
वो सारे किरदार, सम्बंध पात्र
सोते जगते जीते थे साथ मेरे
उन्हें परियों की कहानी के अक्षरों
की स्लीपिंग ब्यूटी बना आई।
अपना वो मकान बंद कर आई।
गौरैयों की उदक-फुदक,
कबूतरों का घोँसला
मेरी वीरान महफिल में
था कलरव का समाँ
अपने साथ उन सभी को
देश निकाला दे आई।
बंद मकान उनके नाम कर आई।
मकान जो था आशियाना मेरा
गुलजार जिसे कर रखा था
तुम्हारे गुजरने के बाद भी
आज है बंद पड़ा।
सूनी आँखें

पात्र :

  1. पेड़
  2. बालक
  3. युवा (बूढ़ा)
  4. युवती (बूढी)
  5. सूत्रधार(कथावाचक)


सार: माता पिता और पेड़ में गहरी समानता है। बचपन में हम उनके साथ खेल कर बड़े होते हैं और बड़े होने के बाद उनकी जरूरत के समय उन्हें छोड़ के चल देते हैं और तभी वापस आते हैं जब हमे उनकी कोई जरूरत होती हैं। धीरे धीरे जीवन इसी तरह से बीत जाता है। जीवन की इस सबसे बड़ी पूंजी को गवां कर हम अपने को सभ्य, सुसंस्कृत होने का ढोल पीटते हैं। प्रश्तुत है आपके समक्ष आज के सामाजिक समस्या से जुडी लघु नाटक "सूनी  आँखें"

दृश्य १
(पेड़ व बालक खेलते हुए) नेपथ्य: हम बने तुम बने इक दूजे के लिये,(पेड़)आई डोंट नो व्हाट तू से (बालक).
(सोनू ओ सोनू, जल्दी आ जा. गाडी का समय हो गया। देर करोगे तो गाडी छूट जाएगी)
सोनू: आया माँ, अभी आया.
पेड़: कहाँ जा रहे हो मित्र ?
सोनू: माँ मुझे बाहर पढाई के लिये भेज रही है.
पेड़: तुम मुझे छोड़ के चले जाओगे?
सोनू: मैं नहीं जाना चाहता. पर एक दिन तो सब को जाना पड़ता है
पेड़:(गहरी निःश्वास) मेरे साथ कौन खेलेगा फिर? मुझे तुम्हारी बड़ी याद आएगी।
सोनू: मुझे भी. वहां मेरे पास तो खिलौने भी नहीं होंगे..सिर्फ किताबें ही किताबें। मेरे पास तो पैसे भी नहीं होंगे कि  मैं खिलौने भी खरीद सकूं.
पेड़: मित्र तुम उदास न हो। मैं हूँ न. मेरे ये फल कल से कौन खायेगा? इन्हें तोड़ कर बेच जो के पैसे मिले उन्से  मेरी ओर से उपहार समझ खिलौने खरीद लेना।
सोनू: तुम कितने अच्छे हो मेरे मित्र!
पेड़: मुझे भूलना मत मेरे मित्र।
नेपथ्य: और सोनू ने पेड़ से फल तोड़ उन्हें बेच खिलौने खरीद लिया. शहर जा कर पढाई करने में इस कदर लीन हुआ की पेड़ को भूल ही गया। पढाई पूरी कर नौकरी की जुगाड़ की. फिर शादी रचाई। परिवार में एक से दो, दो से तीन हुए)

दृश्य २ (शहर)
सोनू: मेरी चांदनी ओ मेरी चांदनी। ... हम बने तुम बने इक दूजे के लिए
चीकू :आई डोंट नो व्हाट तू से
चांदनी: बंद करो ये चोंचले। जब देखो तो नाचना गाना। तुम्हे कुछ और सूझता भी है? अब हमारा बच्चा भी है। कुछ सोचा भी करो।
सोनू:कर तो रहा हूँ नौकरी. चला रहा हूँ न घर के खर्चों को।
चांदनी: क्या खाक चला रहे हो। अपनी एक छत भी मयस्सर न करवा सके।  तुम्हारी इस नौकरी से मकान का किराया, घर के खर्चे, बच्चे की पढाई हो जाय तो बहुत है.  .
सोनू:अब क्या मैं अपनी चमड़ी बेच डालू ?
चाँदनी: मैंने ये कब कहा? छोड़ो, मैं चली घर के काम निपटाने।  तुम्हे कुछ कहना अपना मुहँ खाली करना है(प्रस्थान) ।
सोनू: जाऊं कहाँ बताये दिल, दुनिया है बड़ी तंग दिल, चांदनी आयी घर जलाने, सूझे न कोई मंजिल(गाता हुआ भटकता पेड़ के पास पहुँचता है)
पेड़ (ख़ुशी से): अरे मित्र! मेरी तो आँखें तुम्हारी राह ताकते ताकते पथरा गयी। तुम तो मुझे भूल ही गए, ज़माना गुजर गया तुम्हारे संग खेले...आओ खेलते है..
सोनू: क्या खेलु? अब मैं बच्चा थोड़े रहा. अब तो मैं एक बच्चे का बाप हूँ.
पेड़: अच्छा, ये तो बड़ी ख़ुशी की बात है. पर तुम्हारा मुहँ देवदास की तरह क्यों लटका हुआ है?
सोनू: अब अपनी व्यथा क्या कहूँ? मेरी बीबी मुझसे नाराज है. रोज खिच खिच करती है
पेड़: वो क्यों भला?
सोनू: मैं उसे घर बनवा कर नहीं दे सका. जी करता है की तुम्हारे दाल से लटक फांसी लगा लू.
पेड़: च्च्च।  इतने निराश न हो. तुम्हारा मित्र अभी है।  मेरे ये डाल  किस काम के जो मित्र के काम न आ सके. इन्हें काट कर घर बनवा लो.
सोनू: सच... मित्र तुम कितने अच्छे हो! मैं तुम्हारा ये उपकार कभी न भूलूंगा.
(पेड़ ने अपनी डाल झुका दी....अवसरवादी सोनू उन्हें काट डालता है.... समय गुजरता  गया सोनू वापस नहीं आया. उसके बच्चे बड़े हो चले थे और बूढा सोनू और उसकी पत्नी अब बच्चो के रहमों करम पे थे । )

दृश्य ३
चांदनी(लाठी ले खांसती हुई): बहुरिया, जरा मेरी दवा देना। खांस खांस के मेरा दम फूल रहा है.
(अंदर से आवाज़) हूह चैन से सो भी नहीं सकती, जब देखो बूढ़ी खांसते रहती है...ये व्रिधाश्रम क्यों नहीं चले जाते?
चीकू: क्या शोर मचा रखा हैं आप दोनों ने।  मेरे से ये रोज रोज के झंझट नहीं झेले जाते। आप लोग व्रिधाश्रम चले जाए
सोनू: ये क्या कह रहे हो बेटा? हम अकेले कैसे रहेंगे इस बुढापे में?
चीकू: मैंने कोई आपके बुढापे का ठेका नहीं ले रखा है (चल देता है)
(सोनू व उसकी पत्नी गठरी उठा चल देते हैं और वापस उसी पेड़ के पास पहुँचते हैं
तेरे दूध के लिए ,
हमने चाय पीना छोड़ा था।
वर्षों तक एक कपडे को ,
धो धो कर पहना हमने ,
पापा ने चिथड़े पहने ,
पर तुझे स्कूल भेजा हमने।
चाहे तो ये सारी बातें ,
आसानी से तू भूल जा ,
बेटा मुझे अपने साथ ,
अपने घर लेकर जा।

 घर के बर्तन मैं माँजूंगी ,
झाडू पोछा मैं करूंगी ,
खाना दोनों वक्त का ,
सबके लिए बना दूँगी।

दृश्य ४ 
 पेड़: अहा मेरे मित्र! बहुत वर्षों बाद तुम्हारे दर्शन हुए. कहो कैसे हो?
सोनू: क्या कहूँ अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ. बूढ़ा- काम का न काज का ढाई सेर आनाज का. बच्चों पर बोझ बन गया. घर उनके नाम कर दी और आज फिर बेघर हूँ. सारी जमा पूंजी बच्चे की पढाई के ऋण (लोन) को चुकता करने में लग गए. अब मारे मारे फिर रहे हैं हम दोनों
पेड़: बड़ा दुःख हुआ ये जान कर. पर अब मैं तुम्हारी क्या मदद करूँ? मैं भी तो बूढ़ा हो गया हूँ. मेरे पास अब फल भी नहीं ..डाल भी नहीं। मैं तो अब ठूठ सा रह गया। कोई पानी भी नहीं देता.
सोनू: बस कुछ न कहो मित्र. मैं हूँ न, मुझे कुछ नहीं बस पनाह चाहिये। बचे खुचे दिन तुम्हारे पास गुजार लूँ।
पेड़: आओ आओ मैं भी बूढ़ा तुम भी बूढ़ा अच्छी निभेगी जब मिल बैठेंगे बूढे दो.

(तभी बच्चा दौड़ता आता है सोनू के पैरों से लिपट जाता है)
पीकू: बाबा बाबा दादी,दादी मैं भी आपके पास रहूँगा यहीं आपके इस पेड़ फ्रेंड के पास।  मुझे पेड़ पौधे से भी बहुत प्यार है ।  मेरी टीचर मुझे रोज बताती है बड़े बूढो की सेवा करों, पेड़ लगाओ उन्हें पानी से सींचो। मैं आप दोनों का और आपके फ्रेंड का भी ध्यान रखूँगा। देखिये मम्मी पापा भी आ रहें है।
 (नेपथ्य- माँ की ममता सबसे प्यारी,
सारे जग में सबसे न्यारी,
सबके दिल को भाने वाली,
प्यार का मोल सिखाने वाली.
पिता का प्यार भी है अनोखा,
सारे जीवन को उमंगों से भरता,
हाथ पकड़कर चलना सिखाए,
जीवन की नयी राह दिखायें.
मात पिता की सेवा करना,
प्यार नम्रता में ही चलना,
सदाचार अपनाते रहना,
जीवन खुशियों से तुम भरना.)

इसलिए हमसब प्रेम और सेवा भाव का प्रण लें और इस युवा पीढ़ी की सोंच  को सही दिशा दें । धन्यवाद ।






Sunday, 29 May 2016

छह बरस


तुम नहीं रहे इन छह बरसों में
पर हाँ,
कविता की चंद पंक्तियों में
तुम्हारे होने का अहसास रहा -
"वो भार दिए धर कंधों पर
जो रो रो कर हमने ढोए"।


उन अनगिनत पन्नों पर
थके हाथों से
हस्ताक्षर उकेरना
और,
चेक लेने के क्षण,
दिलासे के बोलों का
सुर बदलना।


हाँ,
कविता की चंद पंक्तियों में
तुम्हारे होने का अहसास रहा -
"महलों के सपनों के भीतर
जर्जर खंडहर का सत्य भरा।"


मैं और मेरा नकारा सा
आहत वजूद
भरते रहे एकला चलो रे
का औपचारिक नारा।
झूठ क्यों कहूँ कि
पाया नहीं स्वयं का दम।


पर हाँ,
कविता की चंद पंक्तियों में
तुम्हारे होने का अहसास रहा
"उर में ऐसी हलचल भर दी
दो रात न सुख की हम सोए।"







Thursday, 25 February 2016