Saturday, 10 December 2016


स्त्री: समय और सच
05-08-2016
21:48
भरे समाज में सर उठा जीती
तब वह एक अकेली स्त्री थी।
दर्पण में उभरे अपने
प्रतिबिंब को हर कोणों
से निहारने में मग्न स्त्री।
पकते बालों को रंग,
अपने उन चंद हसीन
खोये पलों को ढूँढती स्त्री।
नहीं पूरे होने वाले स्वप्नों में
पेंगे, उड़ानें भरती स्त्री।
खोए कदमों की आहटों
की प्रतीक्षा करती एक स्त्री,
हाँ, एक अकेली स्त्री,
अपने एकाकी परिवेश में
अपनी कहानी गढती स्त्री।
अब यहाँ वह एक माँ है।
अपने कोखजाए बच्चों की माँ।
उनके बीच उनके साथ
बचपन जीती हुई एक माँ।
बच्चों के आँखों में झलकती,
अपनी ममता की कसौटी को
परखने, निहारने में मग्न माँ।
खिचड़ी होते बालों को,
यूँ ही लपेट-सपेट रसोई में
उनके रूचि के पकवान बना
उनकी बाँट जोहती माँ।
हाँ, यहाँ वह एक माँ है।
अपनी ममता को परवान चढते
देख, कभी इतराती तो
कभी फूली न समाती माँ।
एक समय वह भी था
जब वह एक बेटी थी।
अपने पिता की दुलारी बेटी,
माँ की आँचल से बंधी बेटी।
जो कभी पत्नी तो कभी माँ,
इन दोनों छोरों के बीच
अपने स्त्रीत्व से बेखबर,
समय की सूई पर झूलती बेटी।
जब स्वयं का बोध हुआ तो
आँखों पर चढे चश्में और
ललाट पर गहराती रेखाएँ थी।
उम्र का वह सफर तय हो चला था
जिसमें बेटी, पत्नी, माँ के पड़ाव तो थे
पर, स्त्रीत्व के पड़ाव पर
हरी सिग्नल की बत्ती थी।

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