Saturday, 20 August 2016

आलू के छिलके

आलू के छिलके
आलू के छिलके
09-06-2016
22:38
बाबू जी के खाना खा लेने पर उसकी नजर अनायास ही प्लेट के एक किनारे पड़े आलू के छिलकों पर जा पड़ी। बाबूजी सिर्फ आलू की भुजिया के छिलके को ही नहीं अपितु अंगूर को भी छिल कर खाते हैं। और तो और, वे अनार के दानों को भी बीज समेत नहीं खाते। उन्हें मुँह में ही गूदे से अलग कर प्लेट में वापस रख दिया करते हैं। और एक वह है कि छिलके समेत ही बनाया और खाया भी करती है। अक्सर बचपन की एक छोटी सी बात आदत बन जाया करती है।
तब वह माउंट कार्मल डिगवाडिह जो कि अब झारखंड राज्य में है, के फर्स्ट स्टैंडर्ड की छात्रा थी। तब टिफिन के डब्बे में पराँठे व आलू की भुजिया का ही ज्यादा चलन था। हाँ, अलबत्ता किसी किसी के डब्बे में मख्खन लगी डबल रोटी और जैम भी रहा करता था जिसे तरसी निगाहों से बस देख कर सब्र कर लिया करती क्योंकि उसके घर में डबल रोटी बीमार को पथ्य के रूप में दिया जाता था और वो भी गरम दूध में डाल कर। सारा कुरकुर डबल रोटी का स्वाद कुरकुरा कर रह जाता।
जो भी हो, माँ के हाथों के बने घी लगे पराँठे और छिलके समेत आलू की मसालेदार भुजिए का स्वाद भूलाए नहीं भूलता। लँचटाईम में सभी मैदान में हरी घास पर गोल घेरा बना कर बैठ कर अपना अपना टिफिन खाते। सप्ताह में किसी एक दिन सीनियर्स द्वारा सभी के लंच बाक्स का औचक निरीक्षण होता था कि किसी ने खाना छोड़ा या बरबाद तो नहीं किया।
उस दिन भी छुट्टी के पहले अन्तिम घंटी में लाईन लगा कर सबके लंच बाक्स की चेकिंग शुरू हुई। उसने तो अपना पूरा नाश्ता खा ही लिया था। सो जब उसकी बारी आई तो उसने बगैर किसी हील हवाला के अपना लंच बाक्स दीदी लोगों के सामने कर दिया।
"हैं...ये तुमने आलू के छिलके क्यों छोड़ रखें हैं? चलो, अभी इन्हें खाओ।" उसे घुड़की लगी।
"दीदी, मैंने तो सब खा लिया है। कुछ भी नहीं छोड़ा। ये तो सिर्फ छिलके हैं। इन्हें भला कैसे खाऊँ" उसने डरते डरते अपनी सफाई पेश की।
"तो आलू छिल के क्यों खाया? अब तो इन्हें खाना ही पड़ेगा वरना चलो मदर के पास।"
"नहीं नहीं, अभी खाती हूँ।" उसने उन सूखे छिलकों में से थोड़ा उठा कर मुँह में डाल कर चबाना शुरू किया। सूखे छिलके भला क्यों गले में नीचे उतरे? ऐसी अपमानजनक स्थिति और सीनियर्स का डर अलग। उसकी आँखें विवशता में डबडबा गई। पानी के घूँट से किसी तरह छिलकों का पहला निवाला निगला। इस बीच वो जल्लाद सीनियर्स आगे किसी और पर अपना रौब झाड़ रही थीं। बस, आव न देखा ताव, सारे छिलके बाउंड्री वॅाल के उस तरफ और खाली डब्बा किताब के बक्से में। तब पीठ वाली बैग नहीं बल्कि स्टील या अल्मुनियम वाले छोटे छोटे बक्से किताब कापियाँ के लिए होते थे। घर पहुंचने के बाद माँ द्वारा रोजाना वाली चेकिंग हुई। उसने माँ से वह छिलके खाने वाली पूरी बात छुपा ली। पर बात उसके बालमन में कहीं अन्दर जा ऐसी गहरी पैठी कि छिलके समेत आलू खाना और बनाना उसकी आदत बन गई।
सम्भवत: जीवन जीना भी कुछ ऐसा ही है छिलके समेत। छिलकों को हमेशा फेंक नहीं सकते। कभी कहीं ये छिलके स्वादिष्ट बनाते हैं, कभी कहीं ये छिलके अनचाहे गले तले निगला जाते हैं या निगलने पड़ते हैं तो कभी कहीं इन छिलकों की पहले ही सफाई कर देते हैं। पर जब भी आलू के उतरे छिलकों पर उसकी नजर पड़ती है, छिलकों वाली वो घटना उसके स्मृति पटल में बरबस कौंध जाया करती है। छिलकों की उपयोगिता और महत्ता को पूर्णतया नजरअंदाज नहीं कर सकते।

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