जलेबी का पेड़
जलेबी का पेड़
जलेबी का पेड़
18-04-2016
17:11
17:11
सुबह की सैर पर बढते उसके कदम यकायक ठठक गए। पेड़ से कुछ गोल गोल घुमावदार सा फल टपक जा धूल में गिरा था। कुछ कौन्ध सा गया उसके मस्तिष्क में, 'जलेबी'! उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। इसके पहले कि किसी के पैर उस फल को धूल धूसरित करते, उसने लपक कर उसे उठा लिया।
कहाँ दिखते हैं अब जलेबी के पेड़। उसके गांव में मुख्य सड़क से घर की ओर जाती कच्ची सड़क के किनारे जलेबी के कई पेड़ दिख जाते थे। तब वह मिडिल स्कूल में पढा करती थी जो कि घर से अनुमानतः एक मील दूर था। उसके गांव में चार महीने जून से सितंबर खूब बारिश होती थी। खेत, बगीचे, पगडन्डियाँ जलमग्न हो जाया करते। यहाँ तक कि शौचनिवृती के लिए कभी कभार पेड़ की डालियों पर चढना पड़ जाया करता था। तब कहाँ हर घर में पक्के शौचालय थे। सो, गरमी की छुट्टियों के बदले बरसात की दो महीने की छुट्टी हुआ करती थी। पूरी गरमी सुबह की स्कूल लगा करती थी। अपने भाई बहनों के साथ कन्धे पर बस्ता टाँगे पकी धूप में घर को लौटने के क्रम में वो जलेबी के पेड़ की छिछली छाँव भी बड़ी घनी लगती। वैसे पेड़ तो कई तरह के थे- आम, शीशम, बबूल इत्यादि। पर आम के पेड़ तो बगीचों में पहरेदार की लाठी तले ठमकते थे। और शीशम, बबूल में कोई खासी दिलचस्पी नहीं थी। बस, मुख्य सड़क से घर की ओर आती कच्ची सड़क के बीच एक नहरी की पुलिया किनारे जलेबी का वह उपेक्षित पेड़ बड़ा छाँवदार लगता था। बस्ता पेड़ की निचली अधटूटी डाल की खूँटी पर लटकाया और छाँह तले हरी घास पर पैर फैला सुस्ताने बैठ गए सब। मवेशियों की तरह आँखें अधखुली और नथूने फैला दो चार बार ठंडी पुरवैया की गहरी साँसे भरी। थकान चुटकियों में गायब। बच्चों की झूंड में बड़े पेड़ पर चढ डाल हिला हिला कर पके जलेबियों को झड़खाते और छोटे हरी घास पर बिखरे पके गुलाबी लाल जलेबियों को चुन चुन अपने बस्ते पर जमा करते। फिर शुरू होता जलेबियों का बाँट बटखरा। उन लाल गुलाबी जलेबियों के अधखुले परतों के बीच का काले बीजड़ों पर लिपटा सफेद पका हिस्सा कुछ खास नहीं था। पर, संभवतः आम के बगीचे की तरह पहरा नहीं होना और मुफ्त उपलब्ध होना उसे खास बना दिया करता था। भले ही, पेड़ पर चढ़ने में हाथ पैर छिले, किसी के उत्साह में छटाँक भर भी जो कमी आती। हाँ, घर पहुँच कर दर्जनों प्रश्न के उत्तर ढूँढने की कवायद बाकी बचे रास्ते होती रहती। पीठ भी पहले से ही मजबूत कर लेनी होती थी। परन्तु, दूसरे दिन बच्चों की टोली और जलेबी का पेड़- सिलसिला जारी रहता जब तक कि सारे जलेबी ना चुक जाए।
अब ना रहा वो जलेबी का पेड़ ना वो बेखबर बचपन। गाँव का वो जलेबी का पेड़ कहीं पक्की सड़क के कब्र तले तो दफन नहीं हो गया...धूल ने पोंछ कर उस टपके पल खाते हुए वह सोच में पड़ गई। पता नहीं कब बढ़ती उम्र की जिम्मेवारियों ने उन्हें सही में उपेक्षित कर दिया। इस बार वो गरमियों में गाँव जाएगी तो उन पेड़ों की खोज खबर जरूर लेगी।
वैसे तो वो जिस स्कूल में कार्यरत है वहाँ बाहरी दीवार से लगा एक जलेबी का पेड़ है पर कभी भी उसे उसपर लाल गुलाबी रंग के फल नहीं दिखे। शायद हर जाड़े में उसकी शाखाएँ कटवा दी जाती है तभी फल नहीं दिखते। या उसने ध्यान ही नहीं दिया होगा। जो भी हो, वो कच्ची सड़क किनारे का पेड़ का जोड़ नहीं ले सकता ये ईंट कंक्रीट की दीवार से लगा पेड़।
कहाँ दिखते हैं अब जलेबी के पेड़। उसके गांव में मुख्य सड़क से घर की ओर जाती कच्ची सड़क के किनारे जलेबी के कई पेड़ दिख जाते थे। तब वह मिडिल स्कूल में पढा करती थी जो कि घर से अनुमानतः एक मील दूर था। उसके गांव में चार महीने जून से सितंबर खूब बारिश होती थी। खेत, बगीचे, पगडन्डियाँ जलमग्न हो जाया करते। यहाँ तक कि शौचनिवृती के लिए कभी कभार पेड़ की डालियों पर चढना पड़ जाया करता था। तब कहाँ हर घर में पक्के शौचालय थे। सो, गरमी की छुट्टियों के बदले बरसात की दो महीने की छुट्टी हुआ करती थी। पूरी गरमी सुबह की स्कूल लगा करती थी। अपने भाई बहनों के साथ कन्धे पर बस्ता टाँगे पकी धूप में घर को लौटने के क्रम में वो जलेबी के पेड़ की छिछली छाँव भी बड़ी घनी लगती। वैसे पेड़ तो कई तरह के थे- आम, शीशम, बबूल इत्यादि। पर आम के पेड़ तो बगीचों में पहरेदार की लाठी तले ठमकते थे। और शीशम, बबूल में कोई खासी दिलचस्पी नहीं थी। बस, मुख्य सड़क से घर की ओर आती कच्ची सड़क के बीच एक नहरी की पुलिया किनारे जलेबी का वह उपेक्षित पेड़ बड़ा छाँवदार लगता था। बस्ता पेड़ की निचली अधटूटी डाल की खूँटी पर लटकाया और छाँह तले हरी घास पर पैर फैला सुस्ताने बैठ गए सब। मवेशियों की तरह आँखें अधखुली और नथूने फैला दो चार बार ठंडी पुरवैया की गहरी साँसे भरी। थकान चुटकियों में गायब। बच्चों की झूंड में बड़े पेड़ पर चढ डाल हिला हिला कर पके जलेबियों को झड़खाते और छोटे हरी घास पर बिखरे पके गुलाबी लाल जलेबियों को चुन चुन अपने बस्ते पर जमा करते। फिर शुरू होता जलेबियों का बाँट बटखरा। उन लाल गुलाबी जलेबियों के अधखुले परतों के बीच का काले बीजड़ों पर लिपटा सफेद पका हिस्सा कुछ खास नहीं था। पर, संभवतः आम के बगीचे की तरह पहरा नहीं होना और मुफ्त उपलब्ध होना उसे खास बना दिया करता था। भले ही, पेड़ पर चढ़ने में हाथ पैर छिले, किसी के उत्साह में छटाँक भर भी जो कमी आती। हाँ, घर पहुँच कर दर्जनों प्रश्न के उत्तर ढूँढने की कवायद बाकी बचे रास्ते होती रहती। पीठ भी पहले से ही मजबूत कर लेनी होती थी। परन्तु, दूसरे दिन बच्चों की टोली और जलेबी का पेड़- सिलसिला जारी रहता जब तक कि सारे जलेबी ना चुक जाए।
अब ना रहा वो जलेबी का पेड़ ना वो बेखबर बचपन। गाँव का वो जलेबी का पेड़ कहीं पक्की सड़क के कब्र तले तो दफन नहीं हो गया...धूल ने पोंछ कर उस टपके पल खाते हुए वह सोच में पड़ गई। पता नहीं कब बढ़ती उम्र की जिम्मेवारियों ने उन्हें सही में उपेक्षित कर दिया। इस बार वो गरमियों में गाँव जाएगी तो उन पेड़ों की खोज खबर जरूर लेगी।
वैसे तो वो जिस स्कूल में कार्यरत है वहाँ बाहरी दीवार से लगा एक जलेबी का पेड़ है पर कभी भी उसे उसपर लाल गुलाबी रंग के फल नहीं दिखे। शायद हर जाड़े में उसकी शाखाएँ कटवा दी जाती है तभी फल नहीं दिखते। या उसने ध्यान ही नहीं दिया होगा। जो भी हो, वो कच्ची सड़क किनारे का पेड़ का जोड़ नहीं ले सकता ये ईंट कंक्रीट की दीवार से लगा पेड़।
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