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Thursday, 4 June 2015

अनमना सा मन

PAGES FROM NEW JERSEY

THURSDAY, 4 JUNE

It's a day of speculation for me. It seems I am done away with writing simply about park, people and surroundings.

आज कुछ मन अनमना सा है.
डायरी के इन पन्नों पे,
होती हैं इकतरफा बातें,
लिखती भी मैं ही हूँ,
पढ़ती भी मैं ही हूँ।
तस्वीरों को निरख निरख,
आँखें अब चली है थक.
सो, आओ हरी पार्क में,
वृक्षों की सघन छाँह तले,
बेंच पर बैठ, हाथों में हाथ डाल,
करें कुछ छोटी-लम्बी बातें,
पूछे एक दूसरे का हाल चाल।
आँखें मुंद, करें चेहरे पर
महसूस ठंडी हवा का झोंका
पत्तों की सरसराहट और
चिड़ियों की चहचहाहट,
बरखा की कुछ बुँदे अंजुली में भर,
खिली धुप की कुछ गर्माहट बटोर,
आओ, चलें करें कुछ बातें।
कुछ अपनी तुम कहो, कुछ मैं कहूँ,
कुछ मेरी तुम सुनो, कुछ मैं सुनूँ।
इतने में ही तो,
अब थमने को है पवन,
तिरछी हो चली है किरण।
क्या सुना तुमने भी कोलाहल?
चीखते समुद्री गल का कोलाहल?
बीतने से पहले,
इन लम्हों को,
अपनी मुट्ठी में थाम,
चलो मिल लेते हैं गले
अब हो चली है शाम।
आज न जाने क्यों-
मन कुछ अनमना सा है।


Sunday, 15 April 2012

Dreams

सपने नहीं बन सकते अपने 


आँखे खोलने को जी नहीं करता ,
कल रात देखा था इन्होने इक सपना.
ऑंखें खोलूं ....डर गयी मैं
कहीं ये उड़ न जाये
पर, तत्क्षण ही उड़ चली मैं
स्वप्न की डोर थामे
नीले अम्बर को छू लेने
और स्वप्न को हकीकत में जी लेने.

पर,
तुम तो मेरे नहीं हो सपने
फिर भी पता नहीं क्यों हो इतने अपने
जो प्रेम की तपस है फलदायी
तो मिलन की हुलस है सुखदायी
पर विरह की झुलस है बड़ी कष्टदायी
फिर भी निस दिन नित नवीन विचार
करता ह्रदय में मधुर भावों का संचार  

Silence makes you numb...Speech turns you dumb

मौन भरा संवाद 

सुनो-
जों ये मौन तुम्हे खल जाता है,
तो ये बकबक क्यूँ असह्य हो जाता है?


मन ही तो है- मानव मन,
कभी उद्वेलित, कभी आह्लादित,
कभी विचलित, कभी व्यथित,
बस डूबते उतराते एक किनारा तलाशता है.


क्यूँ, तुम्हारा मन कुछ अलग है क्या?
जो ये मौन और बकबक रास नहीं आता.


Saturday, 17 March 2012

CHAMELEON

गिरगिट के रंग

 बचपन में देखा करती थी गिरगिट
तब तो बैठा पाती उसे झुरमुटों बीच
गाल फुला पिचका दूर से ही निभाता प्रीत
रंग बदल बदल देखता हमें अपनी आँखें भींच
मानों झुरमुटों का वो बेताज बादशाह
औ' झुरमुट उसका खुशनुमा सैरगाह.

 पर-
आज देखा फिर से एक गिरगिट
जाने कहाँ से आ गिरी पत्तों के बीच
क्या गमले के ही हरियाली पे गयी मर मिट?
या निर्जन सा ये एकाकी कोना उसे लाई खींच?
यहाँ तो उसके रंग भी हो गए हैं फीके,बेरंग
जो लोगों ने अपना लिए हैं उसके बदलते रंग .

Saturday, 3 March 2012

4 March- Happy Birthday, My Son

इक स्थिर, शांत सी रात में
मसीहे ने आ मुझ से पूछा-
बता- तुझे चाहिए क्या?

बंद आँखों से मन की गहराई में झाँका -
तो, वहाँ झिलमिलाती तारों भरी रात,
स्वर्णिम अरुणोदय का प्रखर होता तेज,
हँसता बलखाता गुनगुनाता झरना,
फूलों की निश्छल, स्निग्ध  मुस्कराहट,
तितलियों के मनमोहक सतरंगे पर,
बादलों की नित बदलती आकृतियाँ औ'
असीमित नीले नभ में स्वछंद उड़ान,
...........बावली सी चाह बैठी मैं -
प्रकृति के अनगिनत रहस्मय रंगों को...

मसीहे ने मुस्कुरा कर कहा-
अरी बावली- न हो तू विकल,
ले, तेरी गोद में डालता हूँ दो लाल,
जिसे पा तू हो जाएगी निहाल....

जन्म दिन की असीम शुभकामनायें ......!      

Thursday, 26 January 2012

CHANGE- PAINFUL YET NEEDFUL AND HOPEFUL

मेरा शहर 

ये मेरा शहर ,
रैनबसेरों का शहर 
इस शहर की इक सड़क से जाती चौड़ी इक गली 
जहाँ चप्पे-चप्पे पर है हर सुबह की शाम ढली .
बसा कभी था सपनों के गाँव में इक छोटा सा घर 
आज बहुमंजिली इमारतों पर कहीं जा गया है ठहर 
उतरती प्लास्तरों से बिसूरती झांकती कुछ मूक ईटें
बयां कर जाती कैसे पल क्ष्रण आये, क्यूँ कैसे बीते .
थी उमगती सीने में धड़कन औ' सांसों में थिरकन 
पर आज जाने कहाँ जा थमा है जीवन का कम्पन .
वो सुनहली धुप का कतरा भी जा रूठा है जमीं से
आज हवा का झोंका भी जा बना है अजनबी हमीं से  
बंद दरवाजे के पीछे से झांकती गिल्लौरी आँखे
बेबस सी है बांहें थामे जंगले की तंग सलाखें    
पुराने पहचाने चेहरे आज बन चले है बेरंग लिफाफे
गंदे दिखने लगे तो एक पे एक चढ़ा डाली नयी गिलाफें  
फिर भी -
इस शहर, गली से जाने है कैसा रिश्ता-नाता 
जहाँ की हर इक ईट करती है हम से बाता
बारिश की दो बूंद ही सही,
मन के भावों को भींगा अभी भी जाती है 
धूप का वो कतरा ही सही,
मन की चाहत को कहीं सुलगा जाती है
हवा के दो झोंके ही सही,
कानो में कोई गीत गुनगुना जाते हैं
वो दूर टुकड़ा सा ही नीला आसमां
सपनों को फिर से इक उड़ान दे जाता है .
  

Monday, 12 December 2011

Tanhai ki kahani

तन्हाई की भी है कुछ विचित्र कहानी
पात्र हो कर भी हो जाते है गुमनामी
अतीत के कुँए में एक एक कर होते दफ़न
इक अथाह ख़ामोशी की ओढ़े कफ़न

हम अकेले तनहा हो भले
खुद पे ही हँस रो लेते हैं
खुद से ही बातें कर लेते हैं
खुद में गीत गुनगुना लेते हैं
कभी आड़ी तिरछी लकीरें खींच
उनमें रंग भर कुछ ख्वाब सजा लेते हैं
औ' अपने वीरानेपन का जश्न मना लेते हैं

Sunday, 27 November 2011

Vaishali's Mystique

प्रेम पथिक या पथभ्रमित 

तू प्रेम पथिक या मैं पथभ्रमित,
युग युगान्तेर से निरंतरित ,
रही ये कथा सदा अनकथित  .

अध्यात्म साधना थी या ज्ञान सुधा,
क्या चक्षु पिपासा थी जिससे मन जा बंधा,
रह गयी ह्रदय में सदा ये दुविधा .

कुछेक छ्रण रहे जिन्हें कर हृदयंगम,
क्या संगम....क्या विहंगम ,
वो मोह क्या कभी हो पायेगा भंग?

Monday, 21 November 2011

The Onsetting Winter

कुहे भरी इक भोर 

आज सुबह की सैर दे गयी एक अलग ही मजा,
पर कइयों के लिए कम्बल छोड़ निकलना था इक सजा.
कुहरे की सफ़ेद चादर थी फैली चारों ओर
स. गा. जै. उद्यान में भी बिखरी महकती कुहे की भोर .
पेड़ों से ओस की बूंद ने टपक जब दी इक सिहरन ,
कदम यूँ बढते गए मानों अनदिखते पर बन
झील किनारे था कुहरा और भी गहराया
पत्ता-पत्ता था कुछ सकुचाया, शरमाया
ठण्ड ने दी थी आज पहली दस्तक
मानों मौसम के बाल गए हों पक
बक्से से निकाल उनी कपडे लोगों ने ली ओढ़
पर बाड़े अन्दर गैंडा जा धसां और मिटटी कोड़
जिराफ भी नहीं आया नजर पत्तों पर मुहँ मारते
था सपरिवार जा दुबका छोड़ अपनी शरारतें
घड़ियाल की टकटकी लगी आकाश की ओर
कब छटेगी, कैसे हटेगी ये कुहे भरी ठंडी भोर
कि कैसे सेंकू अपनी पीठ की ये मोटी खाल
निकली न जो धुप तो होगा बड़ा ही बुरा हाल
साम्भर, हिरन ने भी नहीं लड़ाई आज अपनी सींग
डर से जा दुबके कि कहीं न जाये ओस से भींग
उधर पंडुक, हारियल, सारस सबकी बोली थी बंद
कि तभी छटने लगी कुहा अलसाये सूरज से मंद-मंद .
अरे ओ सूरज, क्यों दिखाता तूं अपना इतना भाव?
थोड़ी देर ही सही पर कुहे ने कम नहीं दिखाई अपनी तावं!
ज्यादा सयाना और बडबोला न अब तू बन
थोड़ी गर्मी ला लोगों के ठिठुरे चेहरे पे खिल मुस्कान बन.






Monday, 17 October 2011

जुनून

इक अदृश्य सी दीवार के उस पार खड़े हो
हमारे दर्द पे हँस लेते हो
जले पर नमक छिड़क लेते हो
हमारी मुस्कराहट पे मर तो जाते हो
पर हमारी हंसी से जल जाते हो
कभी इस पार आ खड़े हो तो जानो -
गर जो मुस्कराहट के पीछे नम आँखों में गम है
तो दर्द के पीछे दुनियाँ भर से जूझ जाने का जुनूं है .

Friday, 9 September 2011

CRISIS-TRIAL OF OUR SOUL

मधु-आत्म परिचय 

मैं मधुरिमा का लघु स्वरुप 'मधु',
क्या दूँ स्वत: मैं आत्म परिचय 
मधु से हुए कई अवतरित लग नए प्रत्यय 

बच्चन की रचनाओं में तो मधुशाला की मधुबाला,
(इस पार प्रिये मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा)
परन्तु, 
आज किसी ने कहा हूँ मैं विषमय मधु प्याला .
तो उनको हैं मेरा शत नमन ,
जिन्होंने किया जो मेरा नविनामकरण.

अब तक सोच भ्रमित थी -
हूँ कहीं मैं मधुप्रभात की मधुरागिनी 
तो कहीं मधुयामिनी की शीतल चांदनी.

हूँ कहीं किसी अधर पर ठहरी मधु मुस्कान 
तो कहीं किसी कंठ से फूटा इक मधुगान 

कहीं मधुपतझर बन लाती मैं मधुमास 
तो कहीं मधुश्वास बन जगाती जीने की नयी आस.

आज,
कैसे जला अपनी मधुकाया दूँ मैं औरों को मधुछाया 
कैसे मिटाऊँ उन विषादों को बन कर मैं मधुमाया.

किस मधुबर्षा से सिंचित करूँ मैं प्रकृति की ये ताप,
किस मधुहास से मुक्त करूँ मैं नियति का ये शाप .

किन मधुस्वपन से आज भरूँ मैं ह्रदय के ये छाले,
जब मधुरिमा को मधु से अवतरित ये रूप ही चुरा लें 

Tuesday, 6 September 2011

अस्ताचल सूरज 

वो  अस्ताचल सूरज,
ढला सारे तेज को तज.
शनै: घिरती जा रही संध्या,
मानो हो एक मौन बंध्या 
कातर दृष्टी ने मांगी उत्तर 
क्या कल का दिवस भी जायेगा निरुत्तर ?

जीवन की सरिता के तल पड़ा पत्थर,
सुख औ दुःख से मंज बना पारस.
छु जिसे कई लोहा हुआ सोना ,
पर वो खुद तो रहा घाट का ही पत्थर.
मूक बधिर सा खोज रहा ये उत्तर,
क्या कोई मूर्तिकार गढ़ेगा मुझेमें इक नयी मूरत?

Thursday, 18 August 2011

MITRTA

इक अदद मित्र चाहिए 

कितनी अजीब बात है-
इर्द गिर्द पहचाने अनपहचाने चेहरों का इक सैलाब है,
पर, आज मुझे मिली एक अदद मित्र ढूंढने की सलाह है.

मित्रता के बाज़ार में अकेले असुरक्षित हैं वो खड़ें,
पर, क्या खूब, मित्रता की अहमितयता आज मुझे पे ही जता गए 

सो, मित्र ने ही मित्रता से आज मेरी कुछ  पहचान करा दी,
मित्रता के बाज़ार में लगे बोली से हमें वाकिफ करा दी.

उधर मुस्कराहट की कीमत क्या लगाई गई 
इधर मानसिक बौद्धिक क्षमता जाँची परखी गयी .

मित्रता की तो पूरी बखिया ही उधड़ गयी,
जो उन्होंने जिंदगी के फलसफे पर बात की.

हमदर्द, हमसफ़र बनने का जब दम भरा,
मित्रता का मानों जनाजा ही निकल गया.

 जिसे है रंज मित्रता के घाटे नफे की,वो तो खुद ही है खाली,
मुझ से ही ले चढ़ा गया मुझपे उधार, कितनी ये बात निराली 

हमें भी जिंदगी से न कोई गिला, इस हाथ दिया उस हाथ लिया,
वो जो खुश है इस भ्रम में तो उस ख़ुशी में बस साथ हो लिया


Sunday, 7 August 2011

Har Divas Ka Ek Vihan

हर एक दिवस ढल होता अवसान 
पर पुनः होता एक नया विहान 
नित प्रकृति की यह आँख मिचौनी
औ सुख दुःख की पसरी छावनी
जिसमें मानव नित बुनता मकर-जाल
पर नियति दिखाती अलग ही चाल
मोह माया के नागपाश में वह विवश
तिस विवशता पे देती प्रकृति विहंस 
पूर्वजन्म से पुनर्जन्म तक जोड़ा सम्बन्ध 
तिनके-तिनके बिखर गया छंद मंद
पर हठी मानव ने फिर भी न मानी हार
आज पुनः चला समेट कुछ यादें दो चार    



Wednesday, 15 June 2011

Yaadon, bhulon ka bhawanrjaal

यादों, पछतावों, भूलों का ये भंवरजाल,
निगलने को आतुर फाड़े सुरसा सा मुख ,
अंधकूप के अथाह अंधकार से 
वो आर्तनाद, करुण क्रंदन,
शुन्य को चीरता वो निस्पंदन, 
व्यथा भी खुद से व्यथित, 
तब भी तो ना हुई द्रवित.

दुःख सुख के दो अकथित छोर, 
जीवन के छिर सागर का मंथन,
किया अमृत औ' गरल का पान,
छलित दमित सारा मान-अभिमान.

अंधकूप से दिखता टुकड़ा सा नीला आसमां,
मन की तृष्णा ने दी बांहें पसार, 
चाही कहीं से करुणा व प्रेम उधार,
थाम जो ले चले दूर भवसागर पार.


Saturday, 11 June 2011

Ye Kaisi Vidambna

ये कैसी विडंबना कि-
यूँ तो लगाते है सभी भारतमाता की जय जयकार
पर उसी भारतमाता की भ्रूण हत्या कर देते हैं उसे चीड़ फाड़.
यूँ तो सरे आम स्त्री शक्ति की लगाते है गुहार,
पर सरे आम ही माँ बहनों की कर देते हैं बलात्कार.
यूँ तो कंधे से कंधे मिला चलने का करते हैं दावा, 
पर हर सीता की अग्नि परीक्षा, द्रौपदी के चीरहरण का फूट पड़ता हैं लावा.   
यूँ तो शक्ति पीठों पर जा चढाते है पुष्पांजलि,
पर उसी शक्ति को दहेजाग्नी में झोंक देते है श्रधांजलि.
गर ये त्रासदी रही पाताल की कालिमा सी अंतहीन,
तब तो हर कलाकार है मो.फ.हुसैन सा घर विहीन.

एक कलाकार की मौत होती है उस युग की मौत-
एक साहित्यकार की मौत होती है उस समाज की मौत-
एक फनकार की मौत होती है उस सदी की मौत -
सो न डालो कला को कटु आलोचना के बंद पिंजर में 
न ही निष्काषित कर कतरों उसके पर 
विचरने दो कल्पना को अंतहीन गगन में 
स्वछन्द, उन्मुक्त निर्भय औ निडर.     

Tuesday, 24 May 2011

Tum Kya Ho

तुम क्या हो? 
तुम अब में तब हो
तुम कहाँ में कब हो
तुम सब में रब हो.

तुम चित्रकार की कूँची हो, 
तुम शुभ्र, सच, शुचि हो,
हर ह्रदय में बसी सुरुचि हो.

तुम कलाकार का सृजन हो,
तुम कवि ह्रदय का गुंजन हो,
तुम नाटककार का मंचन हो.

तुम बांसुरी की मधुर तान हो,
तुम पक्षियों का कलरव गान हो,
तुम नित नवीन विहान हो.

तुम प्रहरी सीमा की जीत हो,
तुम करुण ह्रदय के गीत हो,
तुम निरंतन में अंतर रीत हो.

तुम शिशु की निश्चल मुस्कान हो,
कर्मभूमि के अडिग किसान हो,
सारे अवसादों के अवसान हो.

तुम निराकार में साकार हो,
तुम रण क्षेत्र में धनुष्तंकार हो,
पर हाहाकार में भी शान्ताकार हो,

तुम कण-कण में समाहित हो,
तुम पल-पल में प्रवाहित हो,
इक मधुर निनाद, संगीत हो.

तो, यह न सोचो तुम क्या हो,
तुम हर सोच की इक बयां हो. 

Friday, 20 May 2011

Mujhe Wo Yaad Nahin Banana

  मुझे वो याद नहीं बनाना-
 जो अतीत की दीवारों में चुन दी जाये,
वो गूंज नहीं बनाना -
जो वीराने में विलीन हो जाये,
वो काँच नहीं बनाना-
जो चुभ कर इक टीस दे जाये,
वो तश्वीर नहीं बनाना-
जो दीवार पे धुल की परत पीछे छुप जाये,
वो सूखी पंखूरिया नहीं बनाना-
 जो किताबों के पन्नों के बीच मिले
वो शमा नहीं बनाना-
जो अपने ही परवानो को जला रौशन करे,
वो मोहरा नहीं बनाना-
जो शतरंज की बिसात पे बिछ पिट जाये 
पर, हाँ -
मुझे वो मशाल जरूर बनाना-
जो थकते, गिरते, भटकते क़दमों को इक दिशा दे जाये. 

Monday, 16 May 2011

Chal Gayee Nidra

रात विचारों की जननी है और निद्रा हमारी दिन भर की कठीन मेहनत का पुरस्कार. फिर भी यह निद्रा कभी-कभी  हमसे जिद्दी बच्चे की तरह रूठ जाती है. जितना मनाओ वह उतना ही हमे से दूर भागती जाती है-

आज निद्रा फिर छल कर गयी,
रात बस आँखों में ही कट गयी.

कभी कस्तूरी मृग सी कुलाँचे भरती,
यादोंके गहन वन में खो जाती,
छलावा बन मुझको छल जाती.

कभी तितली सी फूल-फूल पर जा बैठती,
मुठ्ठियों में कैद करना चाही तो कांटे जा चुभे,
आँखों का काजल आंसू के साथ रात्रि की कालिमा में जा मिले.
  

Sunday, 24 April 2011

Raktabhit Gulmohar

The red murmur of Summer




प्रचंड होती ज्यों-ज्यों ग्रीष्म चहुओर
त्यों-त्यों प्रखर होता रक्ताभित गुलमोहर, 
नख से शिख अब अमलतास के फूल 
वृक्ष की शाख-शाख पर गए हैं झूल,
वो नव किसलय अब वसंतोप्रांत
है धूल धुसरित और क्लांत,
विकल ह्रदय वर्षा प्रतीक्षित 
आस भरे नयन नभ पे लक्षित,
उठे संध्या में जब मेघ घनघोर 
पवन बहा ले जाती उन्हें छितिज छोर,
प्रकृति के शैशव पर चढ़ा ये यौवन 
गिन रहा अब पतझर के दिन मौन.