Saturday 20 July 2013

लक्वाई कूँची 

कूँची-
आज तू क्यूँ
लक्वाई सी पड़ी है ?
नहीं फिरेगी क्या
आज इन पन्नों पर ?
नहीं उकेरेगी क्या आज
आड़ी-तिरछी रेखाओं
से मछुवारों के
स्वप्न जाल ?

स्वप्न जाल की
की ढीली गांठें में
अब बची है
सिर्फ तड़पती
दम तोडती
सुनहले रुपहले
मछलियों की बू. 

सफ़ेद पृष्ठ
के नीचे ताज़ी कब्रों
में दबी नन्ही लाशों
की उभरती आहों
ने छय ग्रसित
दुर्बल, परजीवी
है बना डाला।

तू उन आहों
से स्पंदित
वायुयंत्र की
सुस्कार भरी
मरसिया पर
बैले नृतयांगना
सी ही थिरक।

कूँची …
तेरे सारे रंग
हो चले हैं स्याह
पर,
तू अब इन्ही
सफ़ेद पृष्ठों पे
स्याह सफ़ेद
लपलपाती ज्विहा
लिए दानवों को उकेर।