Wednesday 1 April 2015

स्याह निशान 

30-03-2015
20:04

पता नहीं कब कैसे उसकी बाँयी बाँह पर कोहनी के ऊपर किसी भोथर कोने से चोट  लगी और उस जगह चवन्नी सा बड़ा निशान उभर आया। उसने उस निशान पड़े जगह को उंगलियों के पोरों से दबाया। उसे हल्का सा दर्द महसूस हुआ। सर झटक वह पुन: परीक्षा की उत्तरपुस्तिकाओं को जाचँने में जुट गई। 

पर, दर्द हर बार दस्तकें देता रहा जब जब, उसकी सहशिक्छिकाओं  ने उस स्याह निशान पर प्रश्नों की लम्बी कतार लगाई-
"ये क्या है, कैसे लगी, कहाँ लगी, कब लगी? कैसे चलती हो? जरा सभँल कर चला करो।"

हर प्रश्न के साथ स्मृतिचिह्नों के सुदूर प्रांतों की यात्रा प्रारंभ होती और तत्क्षण ही दूसरे प्रश्न पर समाप्त होती। 

अंतत: उसने ऊबे से लहजे में कह डाला,  "कहाँ, क्यूँ, कैसे लगी? कमरे की चारदीवारी के कोने से टकराते रहती हूँ , और क्या? उसी में कहीं लग गयी होगी और निशान पड गए।"

सबके प्रश्न जबान से हट आँखों में सिमट तो गए पर उसके उत्तर पर टीके टिप्पणियों की बौछारें होने लगी- इतने तल्ख जवाब किसने मांगे थे? सीधे से कह देती कि कोने से चोट लग गयी थी।"  

उसने स्याह पड़े निशान पर अपने आँचल के पल्लू को फैला कर ढक दिया। 

























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