Saturday 17 August 2013

MOKSHA

मुझे नहीं चाहिए मोक्ष
मैं गरल पी कर भी
मुर्छित अर्धचेतन
रह जी लूंगी
नेत्र मूंद
तुम बनो समाधिस्त
रहो ध्यानमग्न।

मुझे नहीं चाहिए मोक्ष
हलाहल से घायल
कोलाहल में पागल
हो भी जी लूंगी
वाक्पटु बन
तुम दो व्याख्यान
रहो आत्ममग्न।

मुझे नहीं चाहिए मोक्ष
कर्मभूमि की ललकार में
पराजय का घूंट पी
कर भी जी लूंगी
छद्मवेशी बन
तुम करो प्रस्थान
रहो आत्मस्वतंत्र।

मुझे नहीं चाहिए मोक्ष
कटाक्ष-उपालंभ
की दोधारी तलवार
बीच भी जी लूंगी
जन्म मरण से
तुम हो स्वतंत्र
रहो आत्माभिभुत।

मुझे नहीं चाहिए मोक्ष
मान अभिमान
के आडम्बर में
घुट कर भी जी लूंगी
पराया बन
तुम लो मुहँ फेर
रहो आत्मतुष्ट।






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