Friday 8 March 2013

A Recollection

चिट्ठियों की पोटली 

चिट्ठियों को बड़े जतन से उसने सहेज रखा था इक पोटली में। वो पोटली जो कि सिक्के रखने के काम आती है। तब वे चिट्ठियाँ सिक्कों से भारी थी। विरह के अश्रु से सिंचित, नयनों के अंजन से रचित एक एक अकक्षर, शब्द में काफी वज़न था। सो, उसने बक्से में अश्रु औ हर्ष की उस पोटली को बंद कर दिया। कभी- कभी दिवाली के मौके पर बक्से की सफाई करती तो एकाध उनमे से निकाल पढ़ लेती और फिर से उन्हें सहेज उसी पोटली में जतन से रख देती। स्थान परिवर्तन, ऋतु परिवर्तन होता रहा पर वह पोटली वैसे ही उसी बक्से में पड़ी रही।

अरसे बाद यादों की उस पोटली को उसने पुनः नयनों के अंजन से सिंचित करना चाहा तो पोटली खाली मिली। बक्से को ही नहीं अपितु पुरे घर को छान मारा। सिकुड़ी सी उस पोटली को उल्टा कर झाड़ झाड़ कर देखा। एक पन्ना जिस पे कभी उसने  नायिका को नायक के पदचिन्ह पर पुष्प चढाते चित्रित किया था, तैरते पंख की तरह लहराता उसके गोद में आ गिरा। चिट्ठियों का वज़न सिक्कों की उस पोटली में समय के साथ हल्का हो चला था। अश्रु का वज़न ज्यादा हो चला तो उसने पन्ने पर चित्रित नायक के पदचिन्हों पर जलांजलि दे डाली। मष्तिष्क में कुछ शब्द कौंध गए "चलो भई, चलने का समय हो गया ..... अब मोह माया त्यागो।"

उस पन्ने को अब वह  बक्से में नहीं रखती। क्या पता और हल्की हो जाये...................... स्थान परिवर्तन, समय परिवर्तन ने वज़न के स्वरुप का भी परिवर्तन कर डाला..... ( अच्छी है आज कल की ये 'email' -.हलकी है...... जगह भी नहीं घेरती !!)

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