Wednesday, 17 January 2018

THE MAN AT THE TRAFFIC SIGNAL

अस्सी में ले लो भैया 

23-12-2017
20:47

"अस्सी में ले लो, ले लो भैया, आज मेरी बेटी का जन्म दिन है, जो देना है इस चश्मे का, दे दो, पर ले लो, सिर्फ तीन ही बचे हैं और मुझे अपनी बेटी के जन्म दिन के लिए पैसे जुटाने हैं...ले लो बाबू, वह मेरी राह तक रही होगी" 
उसकी नजरें उस व्यक्ति पर जा ठहरी। उम्र कुछ खास नहीं, पैंतीस के लगभग होगी पर सर के बाल खिचड़ी हो चले थे। सफेद शर्ट मटमैली हो चली थी और काली पतलून धब्बेदार। सड़क के बीच खड़े सभी स्कूटर-मोटरसाइकिल सवारों से वह बार बार अनुनय विनती कर रहा था। उसकी आटो रिक्शा के पास भी आया। ट्रैफिक सिग्नल अभी हरी नहीं हुई थी। वह चश्मा हाथ में लिए उसके आटो रिक्शा के पास भी आया और अस्सी में ले लो की रट लगाने लगा। वह आटो रिक्शा में आटो चालक के सीट को  साझा कर बैठी हुई थी। उसकी बाकी चारों सहेलियाँ जो उम्र में उससे थोड़ी छोटी थीं, पीछे बैठी थीं। उम्र दराज होने का ये फायदा है। सामाजिक लोक लाज कम महसूस होता है। उसने काले चश्मे में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। अलबत्ता पीछे की सीट पर बैठी उसकी चारों सहेलियों में से एक ने उससे मोल भाव शुरू किया।  बेचारे चश्मे वाले को कुछ खासी जल्दी मच रही थी कि कहीं ट्रैफिक सिग्नल हरी न हो जाए। उसकी सहेली ने उससे पचहत्तर में एक चश्मा देने को कहा और उसने बगैर हील हवाला के एक चश्मा पकड़ाया और पचहत्तर रुपये अपनी जेब में ठूँस लिए। फिर दूसरे अन्य सवारियों की ओर मुखातिब हुआ। इधर ट्रैफिक सिग्नल हरी होने में सिर्फ तीस सेकेंड बचा पा कर उसके चेहरे पर एक अजीब सी  व्याकुलता छा गई। एक मोटर साइकिल सवार के तेज हार्न पर चश्मे वाले ने हड़बड़ा कर अपने पैर को खींच लिया । उसकी नजरें उस चश्मे वाले का पीछा करती रही। चश्मे वाला अपनी अब बेबसी में अपनी भर आती आँखों को अपनी उसी मटमैली कमीज की बाजू से पोंछने का असफल प्रयास करते हुए बड़बड़ाये जा रहा था,"ले लो भैया, दो ही बचे हैं, मेरी बिटिया का जन्मदिन है, मुझे उसके लिए भेंट लेनी है।"
उसकी बेबसी पर उसका मन भर आया। पर, तब तक ट्रैफिक की हरी सिग्नल देखते ही झटके से आटो आगे बढ़ा दी। उसके मुँह से 'बेचारा, किस्मत का मारा लगता है" को सुन आटो वाले के चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान फैल गई। उसे कुछ अटपटा सा लगा। उसने तत्क्षण ही आटो वाले से पूछ डाला,"क्यों भइया, तुम उसे जानते हो क्या? तुम्हारे जान पहचान का है क्या?" 
आटो वाले ने धीमे स्वर में कहा, "इस चश्मे वाले को तो आप रोज ही किसी ना किसी चौराहे पर लोगों को बेवकूफ बनाते हुए पायेंगी। हर रोज़ एक नया किस्सा उसके पास रहता है।" 
उसे बूरा लगा "कैसा असंवेदनशील है, दूसरे की लाचारी का मजाक उड़ाता है!"
पर, प्रकट में इतना ही कहा,"हो सकता है कि उसकी बेटी का सही में जन्मदिन हो।" 
पर, आटो वाले के इस कथन," शाम को अड्डे पर जा कर देखिए, इसके हाथ में चश्मे की बजाये गिलास पाएंगी", ने उसके मुँह पर ताला जड़ दिया।
मस्तक झटक वह सड़क किनारे दुकानों की लाइनों को देखने तो लगी परन्तु मस्तिष्क में उस बेबस चश्मे वाले की अपनी मटमैली कमीज की बाजू से आँखें पोंछती छवि कौंधती रही -"जाने सच क्या रहा होगा? गरीबी की बेबसी या लत की लाचारी?"

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