Tuesday, 4 March 2014

टूटी छड़ी 


वो छड़ी नहीं टूटी थी उस दिन
टूटी थी उसके अंतः की वो बांध
बरसों से बंधी धीरज छण में गयी चूक
उफनती कुढ़न की सीमा को लांघ।

टूटी छड़ी पर स्तब्ध था वो कक्ष
कक्ष जो कि कभी रहा था साक्ष्य
समर्पण और मौन स्वीकृति का
हताश उस दिन उसने मूँदे सारे गवाक्ष।

टूटी छड़ी अलमारी में बंद पड़ी
शापग्रस्त हो करती रही प्रतीक्षा
जैसे अहिल्या शिलाखंड बन पड़ी रही
उर में लिए चिर उद्धार की इच्छा।

जीवन कम्पन का था थमना कि
टूटी छड़ी का मौन हो चला मुखर
कांपते, थके हाथों ने भरे ह्रदय से
अंततः टूटी छड़ी का कर दिया तर्पण।

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