Tuesday, 18 March 2014

एक होली तब मना करती थी
जब पी के गुलाल भरे हाथ
बढ़ा देती थी गालों की सुर्खी
तब आस थी , उल्लास था
रंगों भरा मधुमास था।

आज भी मनी एक होली
नयन नीर की बेरंग होली
बहा ले गयी गालों से सुर्खी
अन्तः जा फटी हैं दरारें
यहाँ ना आस, ना उल्लास है

शेष बची पतझड़ की आह है
दरारें झड़े पत्तों की बनी कब्र है
जहाँ उग आयी हरी नरम घास
को नयन नीर देती सींच है
ये होली ही जीवन की झोली है 




Tuesday, 11 March 2014

पड़ोस के एक परिवार के गृहस्वामी की पांच दिन पहले घटी सड़क दुर्घटना में तत्क्षण मृत्यु से शोकाकुल गृह स्वामिनी की मर्मस्पर्शी याचना "दीदी, अब आप मुझको अपने साथ रखियेगा, अकेला न छोड़ियेगा..." , से आँखें डबडबा गयी.
समाज की विचारधारा ने हम विधवाओं की एक अलग जाति ही बना दी है...एक अदृशय रेखा के इस पार हम है और उस पार वो विचारधारा 

Tuesday, 4 March 2014

टूटी छड़ी 


वो छड़ी नहीं टूटी थी उस दिन
टूटी थी उसके अंतः की वो बांध
बरसों से बंधी धीरज छण में गयी चूक
उफनती कुढ़न की सीमा को लांघ।

टूटी छड़ी पर स्तब्ध था वो कक्ष
कक्ष जो कि कभी रहा था साक्ष्य
समर्पण और मौन स्वीकृति का
हताश उस दिन उसने मूँदे सारे गवाक्ष।

टूटी छड़ी अलमारी में बंद पड़ी
शापग्रस्त हो करती रही प्रतीक्षा
जैसे अहिल्या शिलाखंड बन पड़ी रही
उर में लिए चिर उद्धार की इच्छा।

जीवन कम्पन का था थमना कि
टूटी छड़ी का मौन हो चला मुखर
कांपते, थके हाथों ने भरे ह्रदय से
अंततः टूटी छड़ी का कर दिया तर्पण।

 Fondness Choked with Words Unspoken...


What appears to be bright and white,
Has double-fooled and bluffed our sight.

Wherein has faded that song sonorous...
Like the roots parched but once porous?

Some chords lie buried unsung and broken
Some fondness choked with words unspoken...

Saturday, 1 March 2014

मन में कभी कभी चाहतों ने अपने पैर पसारने की शुरुआत करनी चाही  तो उसने उन्हें कालीन की तरह लपेट कर कक्ष के एक कोने में खड़ा कर दिया।  फुर्सत मिली तो उसे धुप में फैला कर डंडे से पीट पीट सारी चाहतों के कण कण को हवा में बिखेर दिया। पर नामुराद कालीन में से उसकी बासी महक आती रही.…