Monday, 18 October 2021

घिर रही है सांझ 
हो रहा अब समय 
घर कर ले उदासी। 

तौल अपने पंख, सारस, दूर के 
इस देश में तू है प्रवासी।

  - अज्ञेय   

Sunday, 13 September 2020

A TEACHER IN TIMES OF CORONA

 

I am a teacher, 
Yes, am a teacher and I remember-
Once, I was a teacher all flesh and blood,
Now, am a dunce- struggling and juggling
With so many Apps, Vlogs and all that
Zoom, Google, G suite Meet's flash flood
Desperately handling all till I collapse.

Yes, I am a teacher, and I remember-
Once, an actor, a doctor, a nurse, 
An advisor, a friend in a class.
Now, a pop-up face on a black screen
Dinky-winky like a crownless queen.
Once, my roar boomed the class
Now, some pathetic petty phrases-
"Am I audible, visible...
Can you see...
Could you mute your audio.
Please switch on your video..."

Yes, I am a teacher,
Our entity now online...
The deserted school with deafening silence
Wears the look of a fairy tale castle
And the empty playground with no footfall
Without chirpy children like the cruel 
Corona's garden with winter all around

Even then, I am a teacher,
A reincarnated soul in an online body
Reaching unknown spheres
And exploring unreachable zones
With a hope-
"If winter comes, can spring be far behind?" 
And, with this hope-
I keep going extra mile not just to be 
Some legendary or mystical creature
But because I know that 
I can't be a forgotten lore...

Yes, I am a teacher, 
And, feel proud to say-
A teacher of all times,
A teacher of all seasons.
'Dedicated to all teachers on Teacher's Day'


Sunday, 19 August 2018

हिंदी नाटक

शीर्षक - अबला या सबला 
पात्र : सात
इंद्र
रम्भा
नारद
कॉलेज के लड़के लडकियां
लेडी डॉक्टर
सास
बहु
पति
 भूमिका : "नारी जीवन तेरी यही कहानी, आँचल में दूध, आँखों में पानी।" राष्ट्रकवि मैथिलि शरण गुप्त जी की बावन वर्ष पहले लिखी ये पंक्तियाँ हमारे समाज की सोच में अंगद सा पाँव जमा कर बैठ गयी है जिससे हम अभी भी मुक्त होने के लिए जूझ रहे हैं, लड़ रहे हैं। प्रस्तुत है इसी सन्दर्भ में एकांकी 'अबला या सबला'. माननीय निर्णायक गण व दर्शक गण, जरा इस पर गौर फरमाएं- 


दृश्य १- चलें देखें जरा देवराज इंद्र की सभा में क्या चल रहा है?

(स्वर्ग में इंद्र की सभा, इंद्र सिंहासन पर विराजमान, दो सेवक चंवर डुलाते हु, रम्भा नृत्य करती हुई)

इंद्र: धन्य हो रम्भा, धन्य हो तुम्हारी नृत्य कला , मैं अतिप्रसन्न हूँ, स्वीकार करो ये पुरस्कार।
       (गले से माला देते हुए) 
रम्भा: इसकी क्या आवश्यकता प्रभु. आपकी प्रसन्नता ही मेरा पुरस्कार है।
नारद का प्रवेश: नारायण नारायण , देवराज इंद्र की जय हो!
इंद्र : पधारिये देवर्षि, आपका स्वागत है।  कहिये क्या समाचार है?
नारद: समाचार! नारायण नारायण! यहाँ तो बांटा जा रहा है पुरस्कार और वहां मचा है हाहाकार।
इंद्र: कहाँ मुनिवर?
नारद: पृथ्वी पर प्रभु।  वहां जो देखा, उससे ह्रदय द्रवित हो गया। नारायण नारायण। 
इंद्र: ऐसा क्या देखा, मुनिवर?
नारद: प्रभु, विश्व में कहीं शान्ति नहीं, कहीं परस्पर प्रेम नहीं, सभी अपना धर्म व संस्कार भूल गए हैं।  अपने कर्तव्य को भूल सभी अपना अधिकार चाहते हैं।  नारायण नारायण।
इंद्र: इसका तात्पर्य तो ये है की पृथ्वी पर कोई सुखी नहीं?
नारद: सुखी? नारायण नारायण, सुखी हो भी कैसे प्रभुवर? वहां कुछ ऐसे पथभ्र्ष्ट पुरुष है जो नारी को अपमानित करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। नारायण नारायण
इंद्र: नारी का अपमान कर मानव कभी सुखी नहीं हो सकता। नारी तो महाशक्ति है, जगतजननी है, जब तक वो असुरक्षित है, जगत की सुरक्षा असंभव है। 
रम्भा: प्रभु यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं कुछ निवेदन करूँ।
इंद्र: हाँ हाँ बोलो, बोलो रम्भा बोलो.
रम्भा: ऋषिवर की वाणी सुनकर ऐसी जिज्ञासा जाग उठी है कि स्वर्ग में तो हम नारियां इतनी सुखी व संतुष्ट है पर पृथ्वी पर नारियां इतनी दुखी क्यों हैं? इच्छा होती है कि मैं स्वयं पृथ्वी पर जा कर नारी जाती के कल्याण के लिए कुछ कर सकूँ।
इंद्र: विचार तो अतिउत्तम है, किन्तु तुम्हे मैं तभी वहां जाने की अनुमति दूंगा जब देवर्षि तुम्हारे साथ हो।
नारद: नारायण, नारायण इसी को कहते  हैं- सर मुंडाते ही ओले पड़े. न मैं यहां आता, न जाल में स्वयं फंसता।  किन्तु प्रभु का कथन सर्वथा उचित है. प्रभु , आपकी आज्ञा शिरोधार्य।
इंद्र: तो तुम पृथ्वी पर जा सकती हो रम्भा.
रम्भा: जैसी आपकी आज्ञा प्रभु.
नारद: आप आनंद मनाएं स्वर्ग मैं और हम जाते हैं पृथ्वी का चक्कर लगाने। नारायण, नारायण।
रम्भा: क्या हम इसी वेशभूषा में पृथ्वी का विचरण करेंगें? लोग हम पे आश्चर्य करेंगे।
नारद : आपने सही कहा देवी। चलिए                   

(मंच के पीछे रम्भा का शीघ्रता से वेश परिवर्तन)

दृश्य २:

 डमरू की आवाज, मंच के पीछे से. पृथ्वी का दृश्य।  लोग यहाँ वहां चलते हुए. पीछे से गाड़ियों, बातचीत का शोर। एक कॉलेज के गेट से रम्भा, उसकी सहेली, और दो तीन मनचले लड़के निकलते हुए)

पहला लड़का सीटी बजाते हुए : वो मनचली कहाँ चली  (रम्भा के पीछे आता हुआ)
(रम्भा घबराई सी अपनी सहेली के पीछे छुपती है)
सहेली अपनी चप्पल निकाल कर- जाते हो यहाँ से की मैं १०० डायल करूँ. पता है की नहीं छेड़खानी कानूनन अपराध है।  जेल की हवा खाओगे तो अक्ल ठिकाने आएगी.
दूसरा लड़का: एक ही रास्ता है मेरी परी ,मेरे से शादी रचा लो तो ये छेड़खानी बंद।
पहला लड़का; हाँ, हाँ मेरी रानी, पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती , अब मान भी जाओ.
सहेली: सीधे से बात नहीं समझ आती तो मैं तुम्हारी अभी शिकायत दर्ज करती हूँ।( लड़के की आँखों में पीपर स्प्रे करती है) 
पहला लड़का- अरे, इसने तो मेरी आँखों में मिर्ची भर दी. कम्बख्त कही की!
दूसरा लड़का: ये ऐसे नहीं मानेगी।  इसे अपनी सुंदरता का बड़ा घमंड है ( एसिड की बोतल से एसिड सहेली पर फेंक कर भागता है.
(सहेली गिर जाती और पीड़ा से चिल्लाती है, रम्भा भी चिल्ला कर " पकड़ो पकड़ो एसिड फेंक कर वो भाग रहे हैं कोई उनहे पकड़ो )
सहेली- (छटपटाती हुई) हाय, मेरा चेहरा जला दिया। .......
पीछे से आवाज़- जला दिया , जला दिया, चेहरे को जला दिया 
सहेली- मेरे चेहरे को भले ही जलाया, पर मेरे सपने और अरमान नहीं जले, नहीं जले 
पीछे से आवाज़- नहीं जले नहीं जले, सपने, अरमान नहीं जले।
सहेली- हैं मेरे सपने अभी भी साँसें लेती, करुँगी पुरे- मुझे दिलासा देती, मेरे चेहरे को जलाया पर मेरी हिम्मत नहीं जली।
पीछे से आवाज़- हिम्मत है अभी बाकी, हिम्मत है, हिम्मत है - placards flashing anti eve-teasing
( बेख़ौफ़ आज़ाद है रहना मुझे, बेखौफ आज़ाद रहना है मुझे )

डमरू की आवाज़ के साथ दृश्य परिवर्तन

दृश्य ३ 

( सहेली गर्भवती है )
सास- चल, तेरा गर्भ परीक्छण करवाती हूँ।  पता नहीं क्या है- लड़का या लड़की।  डाक्टर साहिबा- जरा अल्ट्रा साउंड कर बताइये न की लड़का है या लड़की?
लेडी डाक्टर- ये क्या फरमा रही हैं? क्या आपको पता नहीं - गर्भ में लिंग निर्धारण करना जुर्म है?
सास और पति ( छुपा के पैसे देते हुए ) - अरे किसी को खबर नहीं होगी- लड़की होगी तो एबॉर्शन करवा देंगे।
रम्भा - ये आप सब क्या कह रहे हैं. (सास से ) आप भी तो कभी किसी की बेटी रही होंगी. (पति से)- और आपको शर्म नहीं आती - क्या अपनी बहनों को, जिनसे राखी बंधवाते हैं - उन्हें उनके जन्म से पहले ही गला घोंट देते?
संतान तो संतान है- बेटा बेटी एक समान है


पीछे से placards on gender determination is illegal- संतान तो संतान है बेटा बेटी एक समान है।

दृश्य ४ - घरेलु हिंसा 

पति - एक तो  खाली हाथों इसके पिता ने मेरे घर भेज दिया और तिस पर इसने बेटी को जन्म दिया? मेरी मर्दानगी पर बट्टा लगा दिया इस करमजली ने. कहाँ से लाऊंगा इसकी पढाई के और शादी के पैसे? कैसे बचाऊंगा इसे समाज की बुरी नज़रों से? 
पत्नी- मेरा इसमें क्या कसूर है जो आप मुझे अपशब्द बोल रहे हैं?
पति- ये देखो इसकी गज भर लम्बी जबान।  
रम्भा- ये क्या आप कह रहे है- "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते -, तत्र रमन्ते देवता" अपनी पत्नी- पुत्री के साथ इस  तरह का दुर्व्यवहार!
पति-  आप हमारे फ़टे में टांग न अड़ाए। मेरी पत्नी है मैं चाहे जो करूँ - इसे घर में रखूं या निकाल बाहर करूँ।
चल निकल मेरे घर से।  निकल वो कलमुंही , निकल ( धक्का देता है) 
(पत्नी गिर पड़ती है- हे प्रभु क्या मेरा कोई अस्तित्व , वज़ूद नहीं ?
रम्भा -  चलो बहन , उठो और हिम्मत बटोरों , सुना है नारी सदन में स्त्रियों के लिए सेल्फ हेल्प ग्रुप है जहाँ तुम्हे आश्रय और काम भी मिल जायेगा ताकि तुम अपना व अपनी बेटी का पेट पाल सको, इसे पढ़ा सको.

दृश्य ५ नारी सदन

नारी सदन की अध्यक्षा- लेडीज एंड जेंटलमेन मतलब बहनों और भाइयों ! हमारा नारी सदन इंसाफ मांगता है।  we want justice . अब हम औरतों पर जुल्म नहीं होने देंगें।  हम साफ़ बात बोलता है I speak the truth- जब तक ये मरद लोग हमें बराबरी का दर्जा नहीं देगा हम लोग भी मरद लोग के नाक में दम कर देगा . we believe in women's liberation . ye marad log samajhta kya hai apne aap ko and what do they think of us also?
हम ले के रहेगा अपना रिजर्वेशन एंड राइट।
 पत्नी अंदर जाती है पर दूसरे ही पल वहां से बदहवास भागती है- बचाओ मुझे। यहाँ तो मेरी इज्जत और भी खतरें में है- भूखें नंगे भेड़िये यहाँ भी हैं। मैं कहाँ  जाऊं?
रम्भा- उठो, जागो, मिथक तोड़ो...  द्रौपदी, सहती रहोगी? अब न कोई  कृष्ण  कोई राम।  ये लड़ाई तुम्हे  लड़नी पड़ेगी।  सो उठो, वो देखो क्षितिज पार होने को है नव विहान।


पत्नी- सही कहा तुमने।  हमें न अबला अब समझो।  है आँचल में हमारे दूध अभी भी , और आँखों में है पानी।  पर हम है आज की सबला नारी ।  तुम पर नहीं हम आश्रित , न ही मेरी बेटी किसी पे बोझ. इसे पालूंगी , पढ़ाऊंगी, नौकरी कर या मजदूरी , पर इसके सपनों को दूंगी मैं उड़ान , या  मेरी बेटी न बनेगी किसी पे बोझ.



नेपथ्य से- बेटी न किसी पे बोझ, बेटी न किसी पे बोझ।


घर घर में जब होगा बहू और बेटियों का आदर सम्मान,
समाज में तभी हो पाएगा नारी का समुचित उत्थान।
घर घर में नारी जब कर पाएगी अपने भावों की अभिव्यक्ति ,
तभी पनप पाएगी समाज में अभी तक दबी नारी शक्ति । placards 



रम्भा व नारद -
 चलिए मुनिवर हम स्वर्ग लोक चले यहाँ की नारियां अब जागरूक और सशक्त हो रही  है। अब हमारी यहाँ जरुरत नहीं। 


  दृश्य ४ 

स्वर्ग में -
(बेख़ौफ़ आज़ाद है रहना मुझे................................) रम्भा "बेख़ौफ़ आज़ाद है रहना मुझे" पर धीमी गति से नृत्य करती है। 
इंद्र- आ गए आप सब? और ये क्या- ये आधुनिक वस्त्र में रम्भा और मुनिवर आप? आप सब पृथ्वी पर क्या गए, आप की तो कायापलट ही हो गयी। 
नारद- नारायण नारायण। प्रभु हम तो पृथ्वी लोक की नारियों की गरिमा व चेतना से अभिभूत  हो गए हैं.
रम्भा- हाँ प्रभु- मैं भी उनकी तरह अब जागरूक और सशक्त गयी हूँ। 

इंद्र: ये क्या? अब मेरी सभा क्या होगा? 
नारद, इंद्र से : लीजिये प्रभु, आपने तो अपने पैरों में खुद ही कुल्हाड़ी मार ली। इधर आप अपने इंद्र सभा के मनोरंजन की चिंता करें और उधर मैं जगत की खोज खबर लेता हूँ।  नारायण नारायण......... 


















Thursday, 25 January 2018


आँचल 


12-06-2017
14:57

(आधुनिकिकरण के दौर में कई विलुप्त होते एहसासों- कशीदा किया रूमाल, फाउन्टेन पेन की स्याही से सनी उंगलियाँ, सिलबट्टे की घर्र घर्र, इत्यादि में एक एहसास 'आँचल' तले ममत्व का भी है।) हालांकि 'ममत्व' किसी परिधान का मोहताज नहीं। पर, यूँ ही एक बैठे ठाले की चिंतन 😊 

"आँचल विलुप्त होती तेरी कहानी"-

वह आँचल जीर्ण हो चला और मैं सी भी न सका।
उस विस्तृत आँचल के ओर-छोर को मैं माप भी न सका।

भूख मुझे जब लगती, अपने आँचल से ढक दूध पिलाती।
नींद मुझे जो न आती, आँचल से ढक मीठी लोरी सुनाती।

गरमी जो मुझे लगती, वह अपने आँचल से पंखे झलती।
थक हार जब भी मैं आता, आँचल से मुख मेरा पोंछ देती।

कट फट जो जाता, झट आँचल के कोने से मरहम पट्टी कर देती।
ठंड मुझे जो लगती, आँचल से ढक मेरे तन को गरमी देती।

बीमार जो मैं पड़ता, ईश्वर से आँचल फैला विनती करती।
झगड़ा मैं करता और वो मुझे बचाने आँचल कस खड़ी रहती।

इधर नाक मेरी बहती और उधर आँचल उसकी गंदी होती।
मैं परदेश गया, वो मेरी फोटू आँचल से पोंछ चुम लेती।

वह आँचल जीर्ण हो चला और मैं सी भी न सका,
उस विस्तृत आँचल के ओर- छोर को मैं न माप सका।

आँचल, विलुप्त होती तेरी कहानी...

ONE EYED MONSTERS


One eyed monsters with three hands


05-12-2017

17:27


We used to hear or read a lot about one eyed monsters or ten headed monsters like Ravana in grand mother's bed time stories or in the fairy tales of our childhood days. Those monsters exists in those stories only. In real life, there is no denying that monsters do exists but in different shapes, forms or say Avatars.

While returning from KV Hubbali, the sight of the wind mills on the hills of CHITRADURGA, running parallel along the roads brought back the memories of those bed time stories of one eyed monsters. The only difference I found that these one eyed monsters on the hills of Chitradurga had three hands. The hills seemed to be their domains, of which they were the guards.

 I wondered at the invasion of such image into my mind that suddenly clicked. "What is the resemblance? Who are their enemies? Who they have held captive inside any of the caves there?"The image of bleeding JATAYU, with his wings slashed by RAVANA, just flashed across my mind. These electric generating wind mills  have degenerated nature which once had sheltered birds and animals, have now become the domicile of one eyed monsters with three sword-ridden hands...


Random reflections

1. Wantonly plucked
    Deprives us of colourful joy.
    What nature itself
    Plucks when time comes.

2. A solitary walk
    With ghosts of past
    Never let me revel
    But my lonesome walk.
छोटे शहर की मछली

वह छोटे शहर की मछली है,
बड़े शहर की मछलियों का ग्रास।
पर, उसे निगलना-
उन बड़ी मछलियों के लिए,
है बड़ा ही कठिन, कष्टकर त्रास।