Saturday, 23 August 2014

शेष स्मिृतियाँ 


उसने अधनींदी अवस्था में ही अपने हाथों को फैला अपने चारों ओर टटोला। शैय्या के बीच स्वयं को पा कर उचटी नींद को पुनः लाने का प्रयास किया। पर मुंदी आँखों में कुछेक स्मृतियाँ दस्तक देने लगी। बचपन में वह अक्सर ही बिस्तर से लुढक जाया करती थी। पर वो दो जोड़े हाथ उसे वापस बिस्तर पर डाल दिया करते, उनकी धीमी-धीमी थपकी उसे पुनः सुला दिया करती थी। अधनींदी में उसने उन थपकियों को महसूस करना चाहा।
वह ना गिरे- इसलिए माँ उसे दोनों भाइयों के बीच या दीवार की तरफ सुलाती थी। पर कभी-कभी, छोटी-छोटी बातों पर भाइयों से कट्टी कर लेना उसे महंगा पड़ जाता था। रेल गाड़ी में भी इक दफा वो ऊपर की बर्थ से मध्य रात्रि में नीचे रखे बक्से पर जा गिरी। तब से माँ उसे ऊपर की बर्थ पर सुलाती तो दोनों सिक्कड़ के बीच के खुले हिस्से को मोटे फीते या रस्सी से घेर देती। जाने क्या जादू था उन हाथों में कि उनके स्पर्श से, उनके थाम लेने मात्र से ही सारी चोट भर जाया करती थी !
अब न तो वो बिस्तर के सुरक्छित किनारे हैं न ही थामने वाले हाथ...बस एक पसराव है, स्मृतियाँ शेष है.…    

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