Monday, 21 November 2011

The Onsetting Winter

कुहे भरी इक भोर 

आज सुबह की सैर दे गयी एक अलग ही मजा,
पर कइयों के लिए कम्बल छोड़ निकलना था इक सजा.
कुहरे की सफ़ेद चादर थी फैली चारों ओर
स. गा. जै. उद्यान में भी बिखरी महकती कुहे की भोर .
पेड़ों से ओस की बूंद ने टपक जब दी इक सिहरन ,
कदम यूँ बढते गए मानों अनदिखते पर बन
झील किनारे था कुहरा और भी गहराया
पत्ता-पत्ता था कुछ सकुचाया, शरमाया
ठण्ड ने दी थी आज पहली दस्तक
मानों मौसम के बाल गए हों पक
बक्से से निकाल उनी कपडे लोगों ने ली ओढ़
पर बाड़े अन्दर गैंडा जा धसां और मिटटी कोड़
जिराफ भी नहीं आया नजर पत्तों पर मुहँ मारते
था सपरिवार जा दुबका छोड़ अपनी शरारतें
घड़ियाल की टकटकी लगी आकाश की ओर
कब छटेगी, कैसे हटेगी ये कुहे भरी ठंडी भोर
कि कैसे सेंकू अपनी पीठ की ये मोटी खाल
निकली न जो धुप तो होगा बड़ा ही बुरा हाल
साम्भर, हिरन ने भी नहीं लड़ाई आज अपनी सींग
डर से जा दुबके कि कहीं न जाये ओस से भींग
उधर पंडुक, हारियल, सारस सबकी बोली थी बंद
कि तभी छटने लगी कुहा अलसाये सूरज से मंद-मंद .
अरे ओ सूरज, क्यों दिखाता तूं अपना इतना भाव?
थोड़ी देर ही सही पर कुहे ने कम नहीं दिखाई अपनी तावं!
ज्यादा सयाना और बडबोला न अब तू बन
थोड़ी गर्मी ला लोगों के ठिठुरे चेहरे पे खिल मुस्कान बन.






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