हर एक दिवस ढल होता अवसान
पर पुनः होता एक नया विहान
नित प्रकृति की यह आँख मिचौनी
औ सुख दुःख की पसरी छावनी
जिसमें मानव नित बुनता मकर-जाल
पर नियति दिखाती अलग ही चाल
जिसमें मानव नित बुनता मकर-जाल
पर नियति दिखाती अलग ही चाल
मोह माया के नागपाश में वह विवश
तिस विवशता पे देती प्रकृति विहंस
पूर्वजन्म से पुनर्जन्म तक जोड़ा सम्बन्ध
तिनके-तिनके बिखर गया छंद मंद
पर हठी मानव ने फिर भी न मानी हार
आज पुनः चला समेट कुछ यादें दो चार
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