ये कैसी विडंबना कि-
यूँ तो लगाते है सभी भारतमाता की जय जयकार
पर उसी भारतमाता की भ्रूण हत्या कर देते हैं उसे चीड़ फाड़.
यूँ तो सरे आम स्त्री शक्ति की लगाते है गुहार,
पर सरे आम ही माँ बहनों की कर देते हैं बलात्कार.
यूँ तो कंधे से कंधे मिला चलने का करते हैं दावा,
पर हर सीता की अग्नि परीक्षा, द्रौपदी के चीरहरण का फूट पड़ता हैं लावा.
यूँ तो शक्ति पीठों पर जा चढाते है पुष्पांजलि,
पर उसी शक्ति को दहेजाग्नी में झोंक देते है श्रधांजलि.
गर ये त्रासदी रही पाताल की कालिमा सी अंतहीन,
तब तो हर कलाकार है मो.फ.हुसैन सा घर विहीन.
एक कलाकार की मौत होती है उस युग की मौत-
एक साहित्यकार की मौत होती है उस समाज की मौत-
एक फनकार की मौत होती है उस सदी की मौत -
सो न डालो कला को कटु आलोचना के बंद पिंजर में
न ही निष्काषित कर कतरों उसके पर
विचरने दो कल्पना को अंतहीन गगन में
स्वछन्द, उन्मुक्त निर्भय औ निडर.
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