Monday, 16 November 2015

रेलगाड़ी की खिड़की से पीछे छूटती , भागती जिंदगी उसे कुछ मॉर्निंग वॉक पर उसके उठते कदम की तरह लगती है।  पहाड़, जंगल, खेत नदी नाले सभी स्वच्छ साफ दीखते हैं पर जहाँ से घर, क़स्बा, बस्ती, शहर की शुरुआत हुई नहीं कि गंदगी, कूड़ा-कचरा का ढेर पटरियों के किनारे हम मनुष्यों की सभ्य होने के दावे पर प्रश्नचिन्ह से प्रतीत होते  हैं।
सतपुरा की पहाड़ियों के सुरंगों से गुजरती रेल, जंगल और झरने उसे मूक निमंत्रण देते से लगते हैं। उसकी आँखें नम हो आती हैं। ये उसके अंदर बैठी कई सुषुप्त इच्छा है जो उन्हें देखते ही तीव्र हो उठती है। प्रकृति में जो भी हैं वह जीवन के मर्म से स्पंदित होता है या यूँ कहें कि जीवन के मर्म और प्रकृति के स्पंदन के बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है।
मौसम सुखद हो या कष्टकर- इन पेड़-पर्वत, नदी-नाले को कोई शिकवा नहीं।  ऋतू चक्र के बीच ये मौन रह अग्रसरित होते रहते हैं।  ये हम मनुष्य ही हैं जो स्वरचित नियमों से पराजित तो होते हैं पर सारा दोष प्रकृति पर डालने से नहीं चूकते।  

Sunday, 1 November 2015

23-09-2015
01:18 PM

क्या बताऊँ कि तुम मेरे लिए क्या हो-

कि मेरे गोद में पड़ी खुली किताब की
 कुछ रेखांकित शब्द व पंक्तियां हो।
कि पौ फटती भोर की हल्की धुंध में
फ्लाई ओवर की सुनहरी स्ट्रीट लाइट हो।

अब क्या बताऊँ कि तुम मेरे लिए क्या हो।

कि नयनों के कोर से खिलखिलाती हँसी
का अल्हड़ सतरँगा आब कनी हो।
कि राह चलते फुटपाथ पर चाय की दुकान
में रेडियो पर बजती पुरानी गजल हो।

अब क्या बताऊँ कि तुम मेरे लिए क्या हो।

कि शरद् प्रात:कालीन सैर के वक्त पगडंडी
के किनारे उगे घास पर ठहरी ओस की बूंद हो।
कि पत्राच्छादित तरुवर की हरी छतरी से छन,
तन तक पहुँचती धूप की नरम गरमाहट हो।

अब क्या बताऊँ कि तुम मेरे लिए क्या हो।
अक्श तुम्हारा

जाते जाते हाथ यूँ निर्मोही बन छुड़ा गए कि ,
जहन में अक्श तुम्हारे बदल बदल उभरते हैं कई
पर कोई सा भी ठहर, हमदम अब बनता नहीं।