Saturday, 9 November 2013

बेवड़ा बेचारा 

आते जाते राहगीरों 
के पैरों की ठोकरों 
से अलमस्त, बेखबर 
वो सड़क के बीच, 
अर्घ्य के बहे जल 
सा पसरा पड़ा था। 

मुहँ से बह निकली
सुख कर चिवटें
हुई लार पर,
भिनभिनाती मक्खियों
ने अपनी अनधिकृत 
खोली बना ली थी। 

साईकिल सवार ने 
एक उचटती नज़र
उस पर डाल,
अपनी घडी पर डाली। 
हिचकते, थमकते पैर 
पेडल पे फिर बढ़ गए।  

ट्रैफ़िक की बढ़ती जाम 
पर बजने लगे हॉर्न, 
किसी ने उसकी लटकती 
बांह खींच किनारे कर दिया।
उबड़ खाबड़ सड़क के किनारे,
अब वो अधजली बीड़ी 
के कुचले टुकड़े सा पड़ा था। 

झुग्गी के कुछ बच्चों ने
कौतुहलता वश, 
छड़ी से जब उसे उकेरा,
तो किसी ने फिकरा कसा- 
"बेवड़ा लगता है... 
पी के कैसा धुत्त पड़ा है,
मर तो नहीं गया बेचारा ?"
  











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