Thursday, 26 January 2012

CHANGE- PAINFUL YET NEEDFUL AND HOPEFUL

मेरा शहर 

ये मेरा शहर ,
रैनबसेरों का शहर 
इस शहर की इक सड़क से जाती चौड़ी इक गली 
जहाँ चप्पे-चप्पे पर है हर सुबह की शाम ढली .
बसा कभी था सपनों के गाँव में इक छोटा सा घर 
आज बहुमंजिली इमारतों पर कहीं जा गया है ठहर 
उतरती प्लास्तरों से बिसूरती झांकती कुछ मूक ईटें
बयां कर जाती कैसे पल क्ष्रण आये, क्यूँ कैसे बीते .
थी उमगती सीने में धड़कन औ' सांसों में थिरकन 
पर आज जाने कहाँ जा थमा है जीवन का कम्पन .
वो सुनहली धुप का कतरा भी जा रूठा है जमीं से
आज हवा का झोंका भी जा बना है अजनबी हमीं से  
बंद दरवाजे के पीछे से झांकती गिल्लौरी आँखे
बेबस सी है बांहें थामे जंगले की तंग सलाखें    
पुराने पहचाने चेहरे आज बन चले है बेरंग लिफाफे
गंदे दिखने लगे तो एक पे एक चढ़ा डाली नयी गिलाफें  
फिर भी -
इस शहर, गली से जाने है कैसा रिश्ता-नाता 
जहाँ की हर इक ईट करती है हम से बाता
बारिश की दो बूंद ही सही,
मन के भावों को भींगा अभी भी जाती है 
धूप का वो कतरा ही सही,
मन की चाहत को कहीं सुलगा जाती है
हवा के दो झोंके ही सही,
कानो में कोई गीत गुनगुना जाते हैं
वो दूर टुकड़ा सा ही नीला आसमां
सपनों को फिर से इक उड़ान दे जाता है .
  

2 comments:

  1. I quite like this one. Also the fact that the rhyming scheme has changed in the second part.

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    1. ...Thanks my son! Whenever I write anything, I just wait for your comments.

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