Tuesday, 6 September 2011

अस्ताचल सूरज 

वो  अस्ताचल सूरज,
ढला सारे तेज को तज.
शनै: घिरती जा रही संध्या,
मानो हो एक मौन बंध्या 
कातर दृष्टी ने मांगी उत्तर 
क्या कल का दिवस भी जायेगा निरुत्तर ?

जीवन की सरिता के तल पड़ा पत्थर,
सुख औ दुःख से मंज बना पारस.
छु जिसे कई लोहा हुआ सोना ,
पर वो खुद तो रहा घाट का ही पत्थर.
मूक बधिर सा खोज रहा ये उत्तर,
क्या कोई मूर्तिकार गढ़ेगा मुझेमें इक नयी मूरत?

2 comments:

  1. Ek sabse bara murtikar hai har inshan ko mmoka deta hai aap kaisee murat banana chahtey hai. Let us connect ourself with greatest artisan.

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  2. Thanks for such an inspiring thought...!

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