A few days back, in the leisure period, Kumud, one of my colleagues started
reading our palms. To me, she said,"aapka jeewan to ek khuli kitab hai."
This left me pondering over the statement
कुमुद ने मेरे हाथों की लकीरों को पढ़ कहा-
"आपका जीवन तो इक खुली किताब है
कुछेक पन्ने तो समेट रखा कीजिये ."
बात मन की गहराई में जा कहीं धंस गयी
औ न चाहते हुए भी जब पन्नों को पलट डाला
तो मस्तिस्क के पटल पे कुछ यूँ चित्र उभरे-
जब जिसने चाहा-
दो-चार पंक्तियाँ जोड़ी या फिर काट-खुरच डाली,
औ इक हाय सी उठी जो शून्य में विलीन होते गए
किसी ने सुन के भी अनसुनी कर दिया
जब जिसने चाहा -
स्याही भरी पूरी द्वात ही उढेल डाली,
औ अश्रु की बाढ़ में शब्द धुंधले पड़ते गए
किसी ने देख के भी अनदेखी कर दिया
जब जिसने चाहा -
कलम की नोंक ही चुभो तोड़ डाली
औ इक दर्द भरी सिसकी होठों पे उभरी
किसी ने छु कर भी अनछुआ छोड़ दिया
जब जिसने चाहा -
नाता तोड़ गाथा अधूरी छोड़ चल दिया
औ कहानी मानों पंखे से झूलती इक लाश बन गयी
किसी ने पढ़ कर भी अनपढ़ी छोड़ दिया
ये क्या विधाता ने किया -
मानों जीवन नहीं, बनिए का बही-खाता हो
जहाँ बस इंसान के एहसानों का चालुखाता हो
जी करता है इस किताब को
किसी जर्जर इमारत के जंग खाए दरवाजे की तरह बंद कर डालूँ
आज इस अधूरी गाथा को इक कफ़न में लपेट दफ़न कर डालूँ .
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