घंटी लगते ही प्रश्न-पत्र और उत्तर पुस्तिका बाँटने के बाद वह थोड़ी देर के लिए कुर्सी खीच कर बैठ गयी। अभी के पन्द्रह मिनट परीक्षार्थी गण को प्रश्न पत्र पढने के लिए दिए गए है- यह सोच उसने उपस्थिति पृष्ठ को भरा। बैठे बैठे उसने परीक्षा कक्ष के दशो दिशाओं पर दृष्टि फेरी। छत के बीम से मकड़ी के जालें कोने को प्रेम से अधिकार पूर्वक घेर लटके हुए दिख पड़े। उसे यह देख उदासीनता का भाव मन में आया। पर उसने सर झटक अपनी दृष्टि को त्रपेज़ी खिलाड़ी सा उछाल दिया। अब उसकी दृष्टि ब्लैक बोर्ड पर जा अटक गयी जो काली कम हरी ज्यादा प्रतीत हो रही थी, मानो राख के परत पर घास की दरी किसी ने बिछा दी हो। दरअसल कलि ब्लैक बोर्ड पुरानी हो चली थी तो उस घिसी हुई बोर्ड पर हरी वाली चढ़ा दी गई थी। सो काली फ्रेम वाली हरी बोर्ड पर उसकी नज़रें टिक गई। हरी बोर्ड की कोर पर तभी उसने कुछ हरकत देखी। एक स्याह धब्बों वाली छिपकिली काली और हरी बोर्ड के बीच से निकली, झाकं कर पुनः दोनों बोर्डो के बीच जा दुबक गयी। परीक्षार्थी इस अल्पकालीन हरकत से अनभिज्ञ उत्तरपुस्तिका को स्याह करने में लगे रहे। एकाध बार कुछ स्मरण करने की मुद्रा में उनकी नज़रें उठी, सिकुड़ी फिर वापस उत्तरपुस्तिका पर जा गड़ी। हरी बोर्ड पर उसकी नज़र खल्ली से लिखित परीक्षार्थी के अनुक्रमांक के अनुसार उनके बैठने की क्रम व्यवस्था पर जा टिकी। सुन्दर और स्पष्ट लिखावट अच्छी लगी। तभी दुबकी छिपकिली कछुए की तरह निकल अपने पंजो पर उचकी। इधर घबरा कर उसने कुरसी ब्लैक बोर्ड से दूर खिची कि कौन जाने कब छलांग लगा कर उस पर आ गिरे। पर, तब तक वह छिपकिली बाहर के उदासीन दृश्य से निराश हो वापस दोनों बोर्डो के बीच जा दुबकी।
मौसम में बदलाव और गर्मी की शुरुआत के साथ ये छिपकिली प्रजाति के जंतु अपने शीतकालीन प्रवास से बाहर आने लगते हैं। मार्च का महिना है और गर्मी ने अपना मिजाज दिखाना शुरू कर दिया है। पंखे की शीतल हवा भली लग रही है। उस छिपकिली की तरह वह भी समय के काली और हरी बोर्डो के बीच झूलती रही। काली बोर्ड की जरुरत तो रही नहीं थी। वो तो बेकाम हो चला था क्योंकि उस पर लिखते वक़्त खल्ली फिसल जाया करती थी। उसे उलझन होने लगी कि काली पर हरी तह क्यों चढ़ा दी गयी, भला उसे उखाड़ा क्यों नहीं गया। पंखे भी तीन ही चल रहे थे। बाकी के दो बंद पड़े थे जिन पर धूल की एक परत चढ़ गयी थी। धुल की परत भी उस छिपकिली की तरह स्याह दिख रही है।
" मैम, कितना समय हो रहा है?" उसकी विचार तन्द्रा भंग हुई।
" बारह बज के पच्चीस मिनट ", उसने घडी पर एक नज़र डालते हुए जवाब दिया।
उफ़, अभी तो एक घंटा बाकी है और उसे इसी स्याह पट और हरी पट के बीच समय बिताना है। सहनिरीक्षिका ने अपने कुर्सी हॉल के दुसरे कोने में लगा रखी थी। उनकी नज़र खिड़की के बाहर गडी हुई थी। बातचीत के क्रम में उन्होंने बताया कि दिसम्बर में वो अवकाश ग्रहण करने वाली हैं; पति रिटायर कभी के हुए। पहली पाली में होने की वज़ह से उन्हें सुबह जल्दी उठ कर नाश्ता- खाना बना कर निकलना पड़ता है और उस पर महेन्द्रू से आने में अच्छे खासे पैतालीस मिनट लग जाते हैं। फिर दो जगह ऑटोरिक्शा बदलनी पड़ती है। घर में बेटा भी है जो कि भारतीय स्टेट बैंक में आफिसर है। उसकी शादी के लिए लड़की देख रही हैं। दबे स्वर में इतनी सूचना उन्होंने दे दी। बच्चों को लिखने में कहीं खलल न पड़े, इसलिए वह वापस अपने कुर्सी पर आ कर बैठ गयी।
ऊब और उबासी होने लगी तो उसने हॉल के चक्कर लगाने शुरू किये। पर झम्हायियाँ और झपकियाँ दोनों ही हार जीत की बाजी लगा उसके पीछे पड़ी रही। उकता कर उसने अपनी बैग से एक संतरा निकाला, छील कर आधा उसने सह निरीक्षिका को पकडाया और बाकी आधा उसने हॉल में चहलकदमी करते हुए चूसना शुरू किया। थोड़ी खट्टी है तो ठीक ही है - नींद भागेगी। सुबह तडके ही नींद टूट गयी थी। दानवाकार मशीन से नाला बनाने के लिए गड्ढा खोद रहे हैं। उसकी गाडी कैसे निकलेगी ताकि वो समय पर स्कूल पहुँच सके - इस चिंता में उसे नींद नहीं आई। और अब उबासी पे उबासी हो रही है। तभी वार्निंग की घंटी बजी। बच्चों को उसने उनकी उत्तर पुस्तिकाओं को बाँधने और समेटने की हिदायत दे अपना भी बैग ठीक किया। अंतिम घंटी लगते ही उसने सभी उत्तर पुस्तिकाओं को जमा किया। निकलते निकलते उसने एक उचाट दृष्टि ब्लैक बोर्ड पर डाली। छिपकिली की सिर्फ पूँछ दिख रही है। धड दोनों बोर्डो के बीच में होने से नहीं दिख रहा पर पूँछ धीरे -धीरे हिल रही है।